________________
सूयगड १
११. जययं
विहराहि पंचा
अणुपाणा अणुसासणमेव वीरेह सम्म
जोगवं
दुरुत्तरा ।
पक्कमे
१२. विरया बीरा समुट्टिया कोहाकायरिया पीसणा 1 पाणे ण ण हणंति सम्यसो पावाओ विरयाऽभिणिम्बुडा | १२|
वे ॥११॥
१३. ण वि ता अहमेव लुप्पए लुप्ती लोगंसि पाणिणो । एवं सहिएऽहिपासए अणिहे से पुट्ठेऽहियासए |१३|
१४. धुणिया कुलियं व लेववं कसए देहमण सणादिहि | अहिंसामेव पठवए अनुधम्मो मुणिमा पवेइज | १४|
१६. उयमणगारमेसणं
१५. सउणी जह पंसुगुंडिया विहणिय धंसयई सियं रयं । एव दविलवाणवं कम्मं स तवस्ति माहणे |१५|
Jain Education International
समणं ठाणटियं तबस्सणं । डहरा वुड्ढा य पत्थए अवि सुहसे ण य तं सने जगा |१६|
८५
यतमानः बिहर योगवान् !, अणुप्राणाः पन्यानः दुरुतराः । अनुशासनमेव प्रक्रामेत्, वीरैः सम्यक् प्रवेदितम् ॥
विरताः भीराः समुत्थिताः, क्रोधकातरिका दिपेषणाः प्राणान् न घ्नन्ति सर्वशः, पापात् विरता अभिनिर्वृताः ॥
नापि तावत् अहमेव लुप्ये, लुप्यन्ते लोके प्राणिनः । सहितोभिपश्यति, अनिहः सः स्पृष्टोऽधिसत ||
एवं
॥
धूत्वा कुड्यं लेपवत्, कर्णयेत् देहमनशनादिभिः || अविहिसामेव प्रव्रजेत्, अनुधर्मः मुनिना मुनिना प्रवेदितः ॥
शकुनिः यथा पांसुगुण्ठितो, विधूय ध्वंसयति सितं रजः । एवं द्रव्य: उपधानवान्, कर्म क्षपयति तपस्वी ब्राह्मणः ।।
उत्थितमनगारमेषणां, श्रमणं स्थानस्थितं तपस्विनम् । दहरा वृद्धाश्च प्रार्थयेयुः अपि शुष्येयुः न च तं लभेरन् जनाः ॥
For Private & Personal Use Only
प्र० २ : बेतालोय श्लोक ११-१६
:
११. हे योगवान् !"तू यतनापूर्वक विह
रण कर। मार्ग सूक्ष्म प्राणियों से संकुल हैं" (अत: अयतापूर्वक चलने वाला जीववध किए बिना उन पर नहीं चल सकता। तू अहंतों के द्वारा सम्यग् प्रवेदित अनुशासन का " अनुसरण
कर ।
१२. वीर वे हैं जो विरत हैं, संयम में उत्थित हैं, क्रोध, माया आदि कषायों का चूर्ण करने वाले है, जो साथियों की हिंसा नहीं करते, जो पाप से विरत है और उपशान्त हैं ।
१३. इस संसार में मैं ही केवल दुःखों से पीड़ित नहीं होता, परन्तु लोक में दूसरे प्राणी भी पीड़ित होते हैं - इस प्रकार ज्ञान संपन्न पुरुष अन्तर्दृष्टि से देखे और वह परिषहों से स्पृष्ट होने पर उनसे आहत न हो, किन्तु उन्हें सहन करे ।
१४. "कर्म - शरीर को प्रकंपित कर । जैसे
गोबर आदि से लीपी हुई भींत को धक्का देने पर उसका लेप टूट जाता है और वह कृश हो जाती है, वैसे ही अनशन आदि के द्वारा (मांस और शोणित से उपचित) देह को कृश कर । अहिंसा में प्रव्रजन कर । महावीर के द्वारा प्रवेदित अहिंसा धर्म अनुधर्म है-" पूर्ववर्ती ऋषभ आदि सभी तीर्थंकरों द्वारा प्रवेदित है ।
१५. जैसे पक्षिणी ( धूल- स्नान के कारण ) धूल से अवगुंठित होने पर अपने शरीर को कंपित कर, लगे हुए रजकणों को दूर कर देती है, वैसे ही रामद्वेय रहित तपस्वी श्रमण " तपस्या के द्वारा कर्मों को क्षीण कर देता है ।
१६. जो अनगारस्य (अनिकेतच या मोक्ष की एपना के लिए उचित है, जो श्रमणोचित स्थान (ज्ञान आराधना, चरित्र आराधना आदि) में स्थित है,
www.jainelibrary.org