________________
सूयगडो १
प्र०२:वैतालीय: श्लोक १७-२१
१७. जइ कालुणियाणि कासिया
जइ रोयंति य पुत्तकारणा। दवियं भिक्खू समुट्टियं णो लब्भंति णं सण्णवेत्तए।१७।
यदि कारुणिकानि अकार्षः, यदि रुदन्ति च पुत्रकारणम् । द्रव्यं भिक्षं समुत्थितं, नो लप्स्यन्ते एनं संज्ञापयितुम् ।।
१८. जइ तं कामेहि लाविया
जइ आणेज्ज तं बंधिता घरं। तं जीवित णावकंखिणं णो लन्भंति तं सण्णवेत्तए।१८।
यदि तं का निमंत्र्य, यदि आनयेत् तं बध्वा गृहम् । तं जीवितस्य नावकांक्षिणं, नो लप्स्यन्ते एनं संज्ञापयितुम् ।।
जो तपस्वी है, उस श्रमण को बच्चे या बुढे पुनः घर में आने की प्रार्थना करते हैं। वे प्रार्थना करते-करते थक जाते हैं किन्तु उस श्रमण को संयम
मार्ग से च्युत नहीं कर सकते। १७. यद्यपि वे कौटुम्बिक उस श्रमण के
पास आकर करुण विलाप करते हैं, पुत्र-प्राप्ति के लिए रुदन करते हैं (एक पुत्र को उत्पन्न कर तुम प्रव्रजित हो जाना—ऐसा कहते हैं), फिर भी वे राग-द्वेष रहित उस श्रमण को समझाबुझाकर पुनः गृहस्थी में नहीं ले जा
सकते: १८. यद्यपि वे कौटुम्बिक उस श्रमण को
कामभोग के लिए निमंत्रित करते हैं२५ अथवा उसे बांध कर घर ले आते हैं, परन्तु जो असंयम जीवन की आकांक्षा नहीं करता उसे वे समझा-बुझाकर पुनः
गृहस्थी में नहीं ले जा सकते। १६. अपनापन दिखाने वाले माता, पिता,
पुत्री और पत्नी-ये सभी उस श्रमण को सीख देते हैं-'तू हमारा पोषण कर। तू पश्यक (दीर्घदर्शी) है। (हमारी सेवा से वंचित रहकर) तू परलोक को सफल नहीं कर पायेगा,
इसलिए तू हमारा पोषण कर । २०. कुछ मुनि (उनकी बातें सुनकर माता,
पिता, पत्नी या पुत्री में) मूच्छित होकर मोह को प्राप्त होते हैं तथा इन्द्रिय
और मन के संवर से रहित हो जाते हैं-पुनः गृहस्थी में लौट आते हैं। असंयमी से द्वारा असंयम में लाए हुए वे मनुष्य पुनः पाप करने के लिए लज्जा रहित हो जाते हैं।
१६. सेहति य णं ममाइणो
माय पिया य सुया य भारिया। पोसाहि णे पासओ तुमं लोग परं पि जहासि पोसणे
सेधन्ति च एनं ममायिनः, माता पिता च सुता च भार्या । पोषय नः पश्यकस्त्वं, लोकं परमपि जहासि पोषय नः ।।
२०. अण्णे अण्णेहि मुच्छिया
मोहं जंति जरा असंवुडा । विसमं विसमेहि गाहिया ते पाहिं पुणो पगम्भिया ।२०॥
अन्ये अन्यैः मूच्छिताः, मोहं यान्ति नराः असंवृताः । विषमं विषमैः ग्राहिताः, ते पापैः पुन: प्रगल्भिताः ॥
२१. तम्हा दवि इक्ख पंडिए तस्मात् द्रव्यः ईक्षस्व पंडितः,
पावाओ विरएभिणिव्वुडे । पापात् विरतः अभिनिव॑तः । पणए वोरे महाविह प्रणत: वीरः महावीथि, सिद्धिपहं णेयाउयं धुवं ।२१।।
सिद्धिपथं नैर्यात्रिक ध्रुवम् ।।
२१. इसलिए राग-द्वेष रहित पंडित मुनि
(विरत और अविरत मनुष्यों के गुणदोषों को) देखकर पाप से विरत और (कषाय से) उपशान्त हो जाए। वीर पुरुष लक्ष्य तक ले जाने वाले उस शाश्वत महापथ के प्रति प्रणत होते हैं जो सिद्धि का पथ है।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org