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सूपगडो १
२२. वालियमग्गमागओ
मणवयसा काएण संवुडो । चिच्चा वित्तं च णायओ आरंभ च सुसंबुडे चरे । २२। -त्ति बेमि ॥
२३. तय सं व जहाइ से रयं इइ संखाय मुणी ण मज्जई। गोयण्णतरेण माहणे अहसेकरी अण्णेसि इंखिणो |१|
२४. जो परिभवई परं जणं संसारे परिवत्तई महं । अदु इंखिणिया उ पाविया
इइ संखाय मुणी ण मज्जई |२|
२५. जे पावि अणायगे सिया जे वि य पेसगपेसगे सिया इव मोणपर्य उवट्टिए णो लज्जे समयं सया चरे |३|
२६. सम अण्णयरम्मि संजमे संसुद्धे समणे परिव्वए । आवकहा समाहिए दविए कालमकासि पंडिए |४|
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वैतालीयमार्गमागतः, मनसा वचसा कायेन संवृतः । त्यक्त्वा वित्त च ज्ञाती:, आरंभ च सुसंवृतश्चरेत् ।। - इति ब्रवोमि ॥
बोधो उद्देसो दूसरा उद्देशक
स्वयं स्वामिव जहाति स रजः, इति संख्याय मुनिर्न माद्यति । गोत्रान्तरेण
ब्राह्मणः, अथ अर्थ वस्करी अन्येषां 'इंखिणी' ||
श्र० २ : वैतालीय : श्लोक २२-२६
२२. वैतालीय मार्ग को प्राप्त कर मुनि मन, वचन और काया से संवृत होकर, धन, स्वजन और हिंसा का त्याग कर संयम में विचरण करे ।
-- ऐसा मैं कहता हूं ॥
यः परिभवति परं जनं, संसारे परिवर्तते महत् । अब 'इंखिणिका' तु पातिका, इति संख्याय मुनिनं
माद्यति ॥
यश्चापि अनायकः स्यात् योऽपि च प्रव्यकव्यकः स्यात् । इदं मौनपदं उपस्थितः, नो लज्जेत समतां सदा चरेत् ॥
समे अम्यतरस्मिन् संयमे, संशुद्धः समना: परिव्रजेत् । यावत् यावत्कथा समाहितः, द्रव्यः कालमकार्षीत पंडितः ॥
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२२. जिस प्रकार (ए) अपनी कंचुली को छोड़ देता है, वैसे ही मुनि रज को " छोड़ देता है । ( अकषाय अवस्था में रज क्षीण होता है) यह जानकर मुनि मद न करे । गोत्र और अन्यतर (कुल, बल, रूप, श्रुत आदि ) " तथा अपनी विशिष्टता का बोध – ये सब मद के हेतु हैं । ( मद से मत्त होकर ) दूसरों की अवहेलना करना श्रेयस्कर नहीं है । २४. जो गोत्र आदि की हीनता के कारण दूसरे की अवहेलना करता है वह दीर्घकाल तक संसार" (एकेन्द्रिय, डीन्द्रिय आदि हीन शातियों) में उत्पन्न होता रहता है । इसलिए यह अवहेलना पाप को उत्पन्न करने वाली या पतन की ओर ले जाने वाला" है-यह जानकर मुनि मद न करे ।
२५. एक सर्वोच्च अधिपति हो और दूसरा
उसके नौकर का नौकर हो। वह सर्वोच्च अधिपति मुनिपद की प्रव्रज्या स्वीकार कर (पहले से प्रव्रजित अपने नौकर के नौकर को वन्दना करने में ) लज्जा का अनुभव न करे, सदा समता का आचरण करे ।"
२६. जो मुनि सम संयमस्थान या अधिक संयमस्थान में स्थित " ( पूर्व प्रब्रजित मुनि को वंदना करता है), वह अहंकार शून्य है और सम्यक् मन वाला" होकर परिव्रजन करता है । वह पंडित मुनि जीवन पर्यन्त, मोत आए तब तक, समाधियुक्त और रागद्वेष रहित होकर मद नहीं करता ।
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