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________________ सूयगडो १ २७. दूरं अणुपस्सिया अणुपस्सिया तीचं धम्ममणागयं फरसहि पुट्ठे अवि हण्णू समयंसि २८. पणसम सया २९. बहुजणणमणम्मि मुणी तहा। समताधम्ममुदाहरे सुहमे उ सया अलूसए णो कुज्के णो माणि माहणे | ६ | ३१. धम्मस्स माहणे रीयइ | ५ | संवडे सव्वट्ठेहिं णरे अणिस्सिए । सया अणाविले हरए व धम्मं पादुरकासि कासवं 1७1 जए मुणी । ३०. बहवे पाणा पुढो सिया पत्तेयं समर्थ समीहिया । जे मोणपर्यं उबडिए विरदं तत्व अकासि पंडिए दा Jain Education International य पारगे मुणी आरंभस्स य अंतए ठिए । सोयंति य णं ममाइणो जो व लभंती निवं परिमाह ॥६॥ ३२. इहलोगे दुहावहं विक पर लोगे दुहं दुहावहं । विद्वंसणधम्ममेव तं इइ विज्जं को गारमावसे ? |१०| ३३. महया पलिगोव जाणिया जा वि य वंदणपूयणा इह सुहुमे सल्ले दुरुद्धरे विउमंता पयहिज्ज संथवं । ११। दूरं अतीतं ८८ अनुदृश्य धर्ममनागतं परुषैः स्पृष्ट: अपि हत्नुः समये समाप्तप्रज्ञः सदा समताधर्ममुदाहरेद् सूक्ष्मे तु सदा नो वेद नोमानी मुनिः, तथा । ब्राह्मणः, रोयते ॥ यतः, मुनिः । अलूषकः, अ० २ : बेतालीय इलोक २७-३३ : ब्राह्मणः ॥ बहुजननमने संवृतः, सर्वार्थषु नरः अनिश्चितः । अनाविलः, हद इव धर्म प्रादुरकार्षीत् काश्यपम् ।। सदा बहवः प्राणाः पृथग् थिताः । प्रत्येकं समतां समोहिताः । यो मौनपदं उपस्थितः, विरतिं तत्र अकार्षीत् पंडित: ।। धर्मस्य च पारगो मुनिः आरंभस्य च अन्तके स्थितः । शोचन्ति च ममायिनः नो च लभन्ते निजं परिग्रहम् ।। इहलोके दुःखावहं विद्वान्, परलोके च दुःखं दुःखावहम् । विध्वंसनधर्ममेव तद्, इति विद्वान् कः अगारमावसेत् ॥ महान्तं परिगोपं ज्ञात्वा, यापि च वन्दनपूजना इह | सूक्ष्मं शल्यं दुरुद्धरं, विद्वान् मत्वा प्रजह्यात् संस्तवम् ।। For Private & Personal Use Only २७. मुनि अतीत और अनागत धर्म की दीर्घकालीन परम्परा" ( कभी उच्चता और कभी हीनता की अवस्थाओं) को देखकर (मद नहीं करता) हिंसा का अनुशीलन करने वाला कठोर वचन से तर्जित तथा हत प्रहत होने पर भी समता में रहता है ।" २८. कुशल प्रज्ञा वाला और सदा अप्रमत्त मुनि समता धर्म का निरूपण करे । वह सूक्ष्मदर्शी मुनि धर्म कथा में) किसी को बाधा सदा अहिंसक रहे न पहुंचाए ।" वह न क्रोध करे और न अभिमान करे ।" २६. जो मनुष्य धर्म में संवृत, सब विषयों के प्रति अनासक्त और हृद की भांति सदा स्वच्छ है, उसने काश्यप (भगवान् महावीर ) के धर्म को प्रगट किया।" ३०. संसार में अनन्त प्राणी हैं । उनका अस्तित्व पृथक्-पृथक् है । प्रत्येक प्राणी में समता है - सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय यह देखकर जो मुनिपद में उपस्थित है, वह पंडित विरति करे किसी प्राणी का उपघात न करे । ३१. धर्म का पारगामी मुनि आरंभ (हिंसा ) के अन्त में स्थित होता है । परिग्रह के प्रति ममत्व रखने वाला शोक करता है । वह अपने विनष्ट परिग्रह को प्राप्त नहीं करता । ३२. परिषद इस लोक में भी दुखावह होता है और परलोक में भी अत्यन्त दुःखावह होता है। वह विध्वंसधर्मा हैऐसा जानकर कौन घर में रहेगा ? २३. जो यह वंदना-पूजा वह महा कीचड़ है । वह ऐसा सूक्ष्म शल्य है जो सरलता से नहीं निकाला जा सकता । यह जानकर विद्वान् पुरुष को संस्तव ( वंदना-पूजा) का परित्याग करना चाहिए। www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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