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सूयगडी १ ३४. एगे
चरे ठाणमासणे
सयणे एमे समाहिए सिया मिक्स
वइगुत्ते
३५. णो वारं
पोहे ण यावपंगुणे सुण्णघरस्स संजए । पुट्ठे ण उदाहरे वई
ण समुच्छे णो परे त । १३।
३६. जत्थत्यमिए
अणाडले
समवितमाणि मुणी हिपासए। चरगा अदुवा वि भेरवा अदुवा] तत्थ सिरोसिवा सिया |१४|
उवहाणवोरिए अज्झत्थसंवडे |१२|
३७. तिरिया मया व दिव्यगा उवसग्गा तिविहा धियासए लोमादीयं पि ण हरिसे सुष्णागारगए
३८. णो
अभिकलेन्ज जीवि
णो वि य पूयणपत्यए लिया। अन्त्यमुति सुन्नागारगयस्स
महाणी |१५|
मेरवा भिक्खुणो । १६।
३९. उवणीयतरस्स
ताइणो
भयमाणस्स
विविक्कभासणं ।
सामाइयमाहू तस्स जं
जो अप्पाण भए ण दंसए | १७|
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४०. उसिणोदगतत्तभोइणो
धम्मठियस्स मुणिस्स होमतो । संसग्गि असाहू राह असमाही उ तहागयस्स वि।१८।
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एकश्चरेत् स्थानासने, शयने एकः समाहितः स्यात् । भिक्षुः उपधानवीर्यः,
वाग्गुप्तः
अध्यात्मसंवृतः ।।
नो पिदध्यात् न च अपवृणुयात्,
द्वारं
शून्यगृहस्य नोदाहरेत्
संयतः ।
वार्थ,
पृष्टः
न समुच्छिन्द्यात् नो संस्तृणुयात्
तृणम् ॥
यत्रास्तमित: अनाकुल:, समविषमाणि मुनिः अध्यासीत । अथवाऽपि भैरवाः, अथवा तत्र सरीसृपाः स्युः ॥
चरकाः
श्र० २ : वैतालोय : श्लोक ३४-४०
३४. वचन का संयम, मन का संवर ओर तपस्या में शक्ति को लगाने वाला भिक्षु अकेला" चले और कायोत्सर्ग करे, अकेला बैठे और सोए तथा अकेला ध्यान करे ।
तैरश्वान् मानुषान् च दिव्यकान् उपसर्गान् त्रिविधान् अध्यासीत । लोमादिकमपि न हृष्येत्, शून्यागारगतो
महामुनिः ॥
नो अभिकांक्षेत् जीवितं, नो अपि च पूजनप्रार्थकः स्यात् । अभ्यस्तमुपयन्ति भैरवाः,
शून्यागारगतस्य
भिक्षोः ॥
उपनोततरस्य
त्राविणः,
भजमानस्य
विविक्तमासनम् ।
सामायिकमाहुः तस्य यत्, यः आत्मानं भये न दर्शयेत् ॥
।।
उष्णोदकतप्तभोजिनः, धर्मस्थितस्य मुनेः होमतः | संसर्ग: असाधुः राजभिः, असमाधिस्तु तथागतस्याऽपि ॥
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३५. "एकलविहारी मुनि शून्यगृह का" द्वार
न बंद करे और न खोले । पूछने पर
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न बोले, न घर का प्रमार्जन करे और
न घास बिछाए ।
३६. ( चलते-चलते जहां सूर्य अस्त हो ( वहीं ठहर जाए) । सम या विषमजैसा भी स्थान मिले उसे अनाकुलभाव से सहन करे, चाहे वहां चींटी, खटमल आदि" अथवा भैरव (पिशाच, हिस्रपशु) आदि, अथवा सांप आदि हों ।
३७. शून्यगृह में ठहरा हुआ महामुनि तिर्यञ्चकृत मनुष्यकृत और देवकृत इन तीनों प्रकार के उपसर्गों को सहन करे तथा भय से रोमाञ्चित न हो ।
३८. वह भिक्षु न जीवन की आकांक्षा करे और न पूजा का प्रार्थी बने । शून्य गृह में ठहरे हुए मुनि के लिए भैरव ( पिशाच, श्वापद आदि कृत उपसर्ग ) अभ्यस्त हो जाते हैं ।
३६. आत्मा के अत्यन्त निकट पहुंचे हुए, सेवन त्रायी, एकान्त आसन का करने वाले और जो (परीषह तथा उप
सगं आने पर ) भय से विचलित नहीं होता, उस साधक के सामायिक होता है ।
४०. गर्म और तप्त जल को पीने वाले, " धर्म में स्थित और लज्जा सहित मुनि के लिए राजा का संसर्ग अच्छा नहीं होता, क्योंकि उससे तथागत ( अप्रमत्त ) के" भी समाधि होती है।"
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