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________________ सूयगडो। ४२२ अध्ययन ६: टिप्पण ११६-१२१ श्लोक ३६. ११६. अतिमान (अइमाण) यथार्थ में यहां 'अहिमाणं' (सं० अभिमानं) शब्द होना चाहिए था। किन्तु 'हि' और 'इ' के लिपिसाम्य के कारण 'हि' के स्थान पर 'इ' हो गया हो--ऐसा लगता है। अर्थ को दृष्टि से भी अभिमान शब्द ही उपयुक्त लगता है। चूणि और वृत्ति में 'अतिमान' की व्याख्या उपलब्ध है । इसीलिए चूर्णिकार को यह लिखना पड़ा कि मानार्ह आचार्य आदि के प्रति प्रशस्त मान किया जाता है, किन्तु उसके अतिरिक्त जाति आदि का मान नहीं करना चाहिए।' १२०. बड़प्पन के भावों को (गारवाणि) गौरव का अर्थ है-प्राप्त वस्तु के प्रति अहंकार । स्थानांग सूत्र में तीन प्रकार के गौरव बतलाए हैं - ऋद्धि का गौरव, रस का गौरव, सात (सुख-सुविधा) का गौरव ।' १२१. निर्वाण का (णिव्वाणं) चूर्णिकार ने निर्वाण के दो अर्थ किए हैं- संयम और मोक्ष ।' वृत्तिकार ने भी इसके दो अर्थ किए हैं–निर्वाण और निर्वाण-प्रदेश ।' उत्तराध्ययन सूत्र की शान्त्याचार्य की टीका में निर्वाण शब्द के स्वास्थ्य और जीवन-मुक्ति-ये दो अर्थ उपलब्ध होते हैं।' १. (क) चूणि, पृ० १५३. अतिशयेन मानं अतिमानम् ...."अथवा यद्यपि मानार्हेवाचार्यादिषु प्रशस्तो मानः क्रियते सरागत्वात् तथापि समतीत्य योऽन्यो जात्यादिमानः। (ख) वृत्ति, पा १०६ : अतिमानो महामानः । २. ठाणं, ३१५०५ : तओ गारवा पण्णता, तं जहा-इड्डीगारवे, रसगारवे, सातागारवे । ३. चूणि, पृ० १८३ : संयम एब........ अधवा णिव्वाणमिति मोक्षः। ४. वृत्ति, पत्र १८६ : 'निर्वाणम् -अशेषकर्मक्षयरूपं विशिष्टाकाशदेशं वा। ५. बृहद्वत्ति, पत्र १८५,१८६ : निर्वाणं...... स्वास्थ्यमित्यर्थः, यद्वा निर्वाणमिति जीवनमुक्तिम् । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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