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सूडो १
११६. बन्धन से मुक्त हो ( बंधमुक्का)
चूर्णिकार ने बन्धन का आशय काल आदि बतलाया है' और वृत्तिकार ने बाह्य और आभ्यन्तर स्नेह को बन्धन बतलाया
११७. जीने की ( जीवियं )
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बुणिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं'
१. असंयममय जीवन ।
२. विषय कषाय आदि से युक्त जीवन ।
वृत्ति में भी इसके दो अर्थ उपलब्ध होते हैं -
१. असंयममय जीवन ।
२. प्राणधारण ।
मुनि वही है जो न जीने की आकांक्षा रखता है और न मरने की वांछा करता है । पार चला जाता है । यही 'णावकखंति जीवियं' का भाव है ।
११८. श्लोक ३५
अध्ययन : टिप्पण ११६-११६
चूर्णिकार ने प्रस्तुत श्लोक का अर्थ मुख्य रूप से इस प्रकार किया है---गृहवास में प्रकाश न देखने वाले मनुष्य, फिर चाहे वे राजा, अमात्य, पंडित या धर्मलिप्सु हों, पुरिसादानीय नहीं होते । अतः प्रव्रजित होकर वे वीर बंधन से मुक्त हो जीवन की आकांक्षा नहीं करते।'
श्लोक ३५
वह जीवन और मृत्यु की कामना से
चूर्णि और वृत्ति में प्रस्तुत श्लोक के तीसरे चौथे चरण में व्याख्या भिन्न प्रकार से मिलती है ।
चूर्णिकार के अनुसार 'समयातीत' इस पद के दो संस्कृतरूप निष्पन्न होते हैं— 'समयात्त' और 'समयातीत' । उन्होंने 'समयातीय' का संबंध 'अद् भक्षणे' धातु से माना है । जो बहुत कहा गया है वह सब समय के भीतर है अर्थात् उसकी सीमा में है । वैकल्पिक अर्थ इस प्रकार है- जो बहुत कहा गया है वह कुसमयों के द्वारा अतीत है। तात्पर्य की भाषा में अज्ञान दोष और विषय लालसा के कारण कुसामयिकों द्वारा वह आचीर्ण नहीं है ।'
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वृत्तिकार ने तीसरे चौथे चरण का अर्थ दो प्रकार से किया है
१. इस अध्ययन में मैंने बहुत बातों का निषेध किया है। वे आचरण अर्हत् आगम से अतीत या अतिक्रान्त हैं, इसलिए मैंने उनका निषेध किया है । और जो कुछ विधिरूप में प्रतिपादन किया है वह सब कुसमय से अतीत - लोकोत्तर है । बहुत कुछ कहा है, वह सब अहं आगम से विरुद्ध है, इसलिए अनुष्ठेय नहीं है।"
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१. चूर्ण, पृ० १८३ : बन्धनानि कालावीनी तेभ्यो मुक्का बंधणुम्मुक्का |
२. वृत्ति, पत्र १८६ : तथा बन्धनेन सबाह्याभ्यन्तरेण पुत्रकलत्रा विस्नेहरूपेणोत् प्राबल्येन, मुक्ताः बन्धनोन्मुक्ताः ।
३. चूर्ण, पृ० १८३ : न तदसंयमजीविशं ..विषय कषायादिजीवितं वा ।
४. वृत्ति, पत्र १८६ : 'जोवितम् - असंयमजीवितं प्राणधारणं वा ।
५. चूर्णि, पृ० १८३ ।
६. चूर्ण, पृ० १८३ : सव्वेतं समयातीयं, सध्वमिति यविदं धर्मं प्रति इह मयाऽध्ययनेऽपदिष्टम् । समय आरुहत एव, आदीयं ति भक्षणम्, समयाभ्यन्तरकरणमात्रम् 'अद भक्षणे' समयेण अतीतं समयाभ्यन्तरे, न समयेन समयेनात्तमित्यर्थः ।
७. वृत्ति, पत्र १८६ : अध्ययनादेरारभ्य प्रतिषेध्यत्वेन यत् लपितम् उक्तं मया बहु तत् 'समयाद् - अर्हतावागमादतीतमतिक्रान्तमिति कृत्वा प्रतिषिद्धं पिच विधिद्वारेणोक्तं तदेतत्सर्वं कुत्सित समयातीतं लोकोत्तरं प्रधानं वर्तते ते कुलीलिसियेतत्सर्व समातीतमिति कृत्वा नानुष्ठेयमिति ।
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