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सूयगडो १
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अध्ययन::टिप्पण ११४-११५
जा सकता है । धृतिमान् के तप होता है । तप से सुगति हस्तगत होती है। कहा है
'जस्स धिई तस्स तवो, जस्स तवो तस्स सुग्गई सुलहा ।
जे अधिइमंता पुरिसा, तवोऽपि खलु दुल्लहो तेसि ॥ जो धृतिमान् है वही तप कर सकता है। जो तप करता है उसके लिए सुगति सुलभ हो जाती है । जो धृतिमान् नहीं है, उसके लिए तप भी दुर्लभ है।'
वृत्तिकार के अनुसार प्रस्तुत श्लोक में प्रयुक्त वीर, आत्मप्रशंषी, धृतिमान्, जितेन्द्रिय-ये सारे विशेषण आचार्य के भी हो सकते हैं और शिष्य के भी।
चूणि कार ने इन शब्दों को केवल 'आचार्य' का ही विशेषण माना है।' हमारे अभिमत के अनुसार ये विशेषण आचार्य के लिए ही संगत हैं।
श्लोक ३४: ११४. दीप (प्रकाश) (दीवं)
इसके दो रूप बनते हैं-दीप अथवा द्वीप । दीप प्रकाश का वाचक है और द्वीप विश्राम या शरण का।' ११५. पुरुषादानीय (पुरिसादाणीया)
मुख्यतः यह शब्द भगवान् पार्श्व के विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता है । जैन आगमों में स्थान-स्थान पर 'पुरिसादानीय पास' (सं० पुरुषादानीय पार्श्व)-ऐसे प्रयोग उपलब्ध होते हैं।'
चूणिकार और वृत्तिकार ने इसके अनेक अर्थ किए हैं। चूणिकार के अनुसार इसके तीन अर्थ हैं१. धर्मलिप्सु पुरुषों के द्वारा आदानीय । २. ग्राह्य पुरुष । ३. आदानार्थिक पुरुष- मोक्षार्थी पुरुष । वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं१. मुमुक्षु व्यक्तियों के लिए आश्रयणीय ।
२. मोक्ष अथवा मोक्षमार्ग (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र) को धारण करने वाला। १. वृत्ति, पत्र १८५ : तथा धृतिः-संयमे रतिः सा विद्यते येषां ते धृतिमन्तः, संयमधृत्या हि पञ्चमहावतमारोबहनं सुसाध्यं भवतीति,
तपः साध्या च सुगतिहस्तप्राप्तेति । २. वत्ति, पत्र १८५ : शुश्रूषमाणाः शिष्या गुरवो वा शुभ्रष्यमाणा यथोक्तविशेषणविशिष्टा भवन्तीत्यर्थः । ३. चूणि, पृ० १८२ : तत्र केवंविधाचार्याः शरणम् ?, वीरा'... - अत्तपण्णेसो ...। ४. वृत्ति, पत्र १८६ : 'दीवं' ति 'बीपी दीप्तो' दीपयति-प्रकाशयतीति दीपः .. .. यदि बा-द्वीपः समुद्रादौ प्राणिनामाश्वास
५. (क) ठाणं ६७८ : पासस्स गं अरहो पुरिसादाणिस्स.....।
(ख) समवाओ १६४ : पासस्स णं अरहतो पुरिसादाणीयस्स। (ग) भगवई १।१२२ : पासेणं अरहा पुरिसादाणीएणं.... ।
(घ) नायाधम्मकहा २।१।१६ : पासे अरहा पुरिसादाणीए। ६. चूणि, पृ० १८३ : धर्मलिप्सुभिः पुरुषरादानीयाः। अथवा ग्राहाः पुरुषा इत्यादानीयाः । अयवादानीय इत्यादाथिकः साधुः, पुरुष
श्चासौ आदानीयश्च पुरुषादानीयः । ७. वृत्ति, पत्र १८६ : मुमुक्षूणां पुरुषाणामादानीया-आश्रयणीयाः पुरुषादानीया महतोऽपि महीयांसो भवन्ति, यदि वा–आदानीयो--
हितैषिणां मोक्षस्तन्मार्गो वा सम्यग्दर्शनादिकः ।
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