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सूयगडो
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अध्ययन &: टिप्पण १०८-११३ १०८. आचार की (आयरियाई)
वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप दिए हैं—आर्याणि और आचर्याणि । आर्याणि का अर्थ है--आर्य लोगों का कर्तव्य और आचर्याणि का अर्थ है-मुमुक्षु के लिए जो आचरणीय है, ज्ञान दर्शन चारित्र आदि ।'
श्लोक ३३: १०६. सुप्रज्ञ (सुप्पण्णं)
इसका अर्थ है-गीतार्थ, प्रज्ञावान्, स्वसमय और परसमय को जानने वाला ।' ११०. सुतपस्वी आचार्य की (सुतवस्सियं)
चूर्णिकार ने सुतपस्वी का अर्थ संविग्न किया है।'
जो बाह्य और आभ्यन्तर-दोनों प्रकार के तप में प्रवीण है वह सुतपस्वी है-यह वृत्तिकार का अभिमत है।' १११. वीर (वीरा)
चूर्णिकार ने इसका अर्थ- सुशोभित होने वाले किया है।' वृत्तिकार के अनुसार जो पुरुस कर्म-बंधन को तोड़ने में सक्षम है और जो कष्ट-सहिष्णु है, कष्टों के आने पर क्षुब्ध नहीं होता, वह वीर कहलाता है।' ११२. आत्मप्रज्ञा के अन्वेषी (अत्तपण्णेसी)
चूर्णिकार ने आत्मप्रर्शाषी शब्द का अर्थ इस प्रकार किया है जो आत्मा को जानने के लिए तथा उसके बंधनमुक्ति के उपाय (संयमवृत्ति) में व्यवस्थित होने के लिए आत्मज्ञान का अन्वेषण करते हैं वे आत्मप्रशंषी होते हैं।'
वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं१. आप्तप्रज्ञषी-आप्तपुरुषों की प्रज्ञा–केवलज्ञान की खोज करने वाले, उसको पाने का प्रयत्न करने वाले। सर्वज्ञ के
द्वारा उक्त वचन का अन्वेषण करने वाले । '. आत्मप्रशंषी- आत्मज्ञान की एषणा करने वाले, आत्महित की खोज करने वाले । ११३. धृतिमान् (धितिमंता)
धृतिमान् वह होता है जिसकी संयम में रति होती है । संयम की धृति से ही पांच महाव्रतों का भार सहजरूप से वहन किया १. वृत्ति, पत्र १८५ : 'आर्याणि'-आर्याणां कर्तव्यानि अनार्यकर्तव्यपरिहारेण यदि वा-आचर्याणि-मुमुक्षणा यान्याचरणीयानि ज्ञान
दर्शनचारित्राणि तानि। २ (क) चूणि, पृ० १८२ : सुपण्णं शोभनप्रज्ञं सुप्रज्ञं गीतार्थं प्रज्ञावन्तम् ।
(ख) बुत्ति, पत्र १८५ : सुष्ठु शोभना वा प्रज्ञाऽस्मेति सुप्रज्ञः-स्वसमयपरसमयवेदी गोतार्थ इत्यर्थः । ३. चूणि, पृ० १८२ : सुठु तवस्सितं सुतवस्सितं, यदि चेत् संविग्ग इत्यर्थः। ४. वृत्ति, पत्र १६५ : तथा सुष्ठु शोभनं वा सवाह्याभ्यन्तरं तपोऽस्यास्तीति सुतपस्वी। ५ चूणि, पृ० १८२ : विराजन्तः इति वीराः। ६. वृत्ति, पत्र १८४ : 'वीराः'-कर्मविदारणसहिष्णवो वीरावा परिषहोपसर्गाक्षोभ्याः । ७. चूणि, पृ० १८२ : आत्मप्रज्ञामेषन्तीति आत्मप्रषिणः आत्मप्रज्ञानमित्यर्थः । कथम् ?, येनाऽऽत्मा ज्ञायते येन वाऽस्य निस्सारणोपायः
संयमवृत्तिव्यवस्थित इति । ८. वत्ति, पत्र १८४ : 'आप्तो'-रागादिविमुक्तस्तस्य प्रज्ञा- केवलज्ञानाख्या तामन्वेष्टुं शीलं येषां ते आप्तप्रज्ञान्वेषिणः सर्वज्ञोक्तान्वेषिण
इति यावत्, यदि वा-आत्मप्रज्ञान्वेषिण आत्मनः प्रज्ञा–ज्ञानमात्मप्रज्ञा तदन्वेषिणः आत्मज्ञत्वा (प्रज्ञा)न्वेषिण आत्महितान्वेषिण इत्यर्थः।
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