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सूयगडो १
अध्ययन ३: टिप्पण ३१-३४
श्लोक २० ३१. स्थविर (थेरओ)
जो अन्तिम दशा को प्राप्त है और जो लकड़ी के सहारे चलता है, वह स्थविर है ।'
वृत्तिकार ने स्थविर उसे माना है जिसका आयुष्य सौ वर्षों से अधिक है। ३२. आज्ञाकारी (सवा)
इसका संस्कृत रूप है-श्रवाः । चूणिकार ने इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार की है-शृण्वंतीति श्रवाः । जो आज्ञा, वचन और निर्देश का पालन करते हैं जो आज्ञाकारी होते हैं वे श्रवा कहलाते हैं।'
वृत्तिकार ने इसका संस्कृत रूप 'स्वका' और अर्थ-अपना, निजी किया है।'
प्रस्तुत प्रसंग में चूणिकार का अर्थ ही उचित लगता है, क्योंकि अन्तिम दो चरणों में 'भायरो' 'सवा' और 'सोयरा'-ये तीन शब्द आये हैं। यदि हम 'सवा' का अर्थ स्त्रका-निजी करते हैं तो 'सोयरा' शब्द का कोई औचित्य नहीं रहता। अतः 'सवा' का अर्थ आज्ञाकारी ही उचित लगता है । शब्दकोष में भी आज्ञाकारी के अर्थ में आ+श्रवः शब्द मिलता है।"
श्लोक २१ :
३३. इस प्रकार तुम्हारा लोक (यह और पर सफल) हो जाएगा (एवं लोगो भविस्सइ)
इसका शाब्दिक अर्थ है-इस प्रकार लोक हो जायेगा। इसका तात्पर्य है कि सेवा-योग्य माता-पिता की सेवा करने से यह लोक और परलोक दोनों सफल होते हैं। सेवा करने वाले की इस लोक में कीर्ति होती है, यश और मंगल होता है। कहा भी
गुरवो यत्र पूज्यन्ते, यत्र धान्यं सुसंभृतम् ।
अदन्तकलहो यत्र, तत्र शक! वसाम्यहम् ॥ कोत्ति ने कहा-'इन्द्र ! मेरा निवास वहां होता है जहां गुरुजन पूजे जाते हैं, जहां धान्य का भंडार भरा रहता है और दांतों की कटकटाहट नहीं होती, जहां दंत-कलह नहीं होता।
गुरुजनों की सुश्रुषा से परलोक सफल होता है। श्रमण माता-पिता की सेवा करने की प्रतिकूल स्थिति में होते हैं। इसलिये जो गुरुजन के प्रत्यनीक होते हैं उनका लोक कैसे सुधरेगा और कैसे उनके जीवन में धर्म उतरेगा?' ३४. लौकिक आचार (लोइयं)
इसका अर्थ है-लौकिक आचार, लौकिक मार्ग । वृद्ध माता-पिता का प्रतिपालन करना लौकिक मार्ग है।'
१. चूणि, पृ०८४ : थेरगो दंडधरितग्गहत्थो अत्यन्तदशां प्राप्तः । २. वृत्ति, पत्र ८५ : स्थविरो वृद्धा शतातीकः (वर्षशतमानः) । ३. चूणि, पृ० ८४ : शृण्वन्तीति श्रवाः आणा-उववाय-वयण-णिद्देसे य चिट्ठति । ४. वृत्ति, पत्र ८५ : स्वका निजाः। ५. अभिधान चिंतामणि कोश ३९६ : आश्रवो वचने स्थितः। ६. (क) चूणि, पृ० ८४ : मातापितरौ हि शुश्रूषार्थी ताविदानी पुष्णाहि। एवं लोको भविष्यतीति अयं परश्च । अस्मिस्तावद् यशः
कोत्तिश्च भवति मङ्गलं च । उक्तं हि गुरवो यत्र ......... । परलोकश्च भवति गुरुशुश्रूषया । एते हि पदोवसत्थिया समणगा भवंति जे माया-पितरं ण सुस्सूयंति, तेण तेसि
गुरुपडिणीयाणं कतो लोगो धम्मो वा भविस्सति । (ख) वृत्ति, पत्र ८५ : एवं च कृते तवेहलोकः परलोकश्च भविष्यति । ७. वृत्ति, पत्र ८५ : लौकिकं लोकाचीर्णम् अयमेव लौकिकः पन्या यदुत-वृद्धयोर्मातापित्रोः प्रतिपालनमिति ।
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