SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 188
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूयगडो १ अध्ययन ३ : टिप्पण २६-३० गई। अमात्य राजकार्य से निवृत्त होकर विलम्ब से घर पहुंचता था। वह प्रतिदिन उसकी प्रतीक्षा में बैठी रहती। कुछ दिन बीते। वह कुपित हो गई। एक दिन उसने दरवाजे बन्द कर दिये। अमात्य आया। उसने कहा-द्वार खोल । उसने द्वार नहीं खोला । अमात्य प्रतीक्षा में बैठा रहा। अन्त में वह बोला-केवल तू ही इस घर की स्वामिनी नहीं है। यह सुनकर उसका अहं फुफकार उठा । वह उठी, द्वार खोला और अटवी की ओर चली गई । अटवी में उसे चोर मिले । चोरों ने उसे अपने सेनापति के समक्ष उपस्थित किया। सेनापति ने उसे अपनी पत्नी बनाना चाहा। वह ऐसा नहीं चाहती थी। चोर-सेनापति ने उसे जलोकवैद्य के हाथ बेच डाला । वह भी उसे अपनी पत्नी बनाना चाहता था। वह ऐसा नहीं चाहती थी। तब वैद्य ने रोषवश उसके शरीर पर मक्खन चुपड़ा और फिर जलोकों को छोड़ा । वे काटने लगे। शरीर लहुलुहान हो गया। फिर भी उसने वैद्य के साथ विवाह करना नहीं चाहा । ......... उसका रूप और लावण्य बिगड़ गया। उसका भाई ढूढ़ते-ढूढ़ते वहां आ पहुचा। अपनी बहिन को पहचान कर घर ले गया। वमन-विरेचन आदि चिकित्सा पद्धति से उसको नीरोग कर पुनः लावण्यवती और रूपवती बनाकर अमात्य को सौंपा । अब वह पूर्ण शांत हो चुकी थी। उसका अहं नष्ट हो चुका था। एक बार उसने घर पर लक्षपाक तैल बनाया। परीक्षा करने एक देव मुनि का वेष बनाकर उसके घर आया और लक्षपाक तैल मांगा। उसने दासी से लाने के लिये कहा । मार्ग में ही वह भांड फूट गया। दूसरा, तीसरा और चौथा भांड भी फुट गया। अचंकारिय भट्टा फिर भी रुष्ट नहीं हुई। फिर पांचवीं बार वह स्वयं भांड लाने गई। श्लोक १८: २८. सूक्ष्म संग (जाति-सम्बन्ध) (सुहुमा संगा) चूणिकार ने संग, विघ्न और व्याक्षेप को एकार्थक माना है।' सूक्ष्म का अर्थ हैं-निपुण । संग सूक्ष्म होते हैं । वे प्राणवध की भांति स्थूल नहीं होते। वे व्यक्ति को किसी उपाय के द्वारा धर्म च्युत करते हैं। ये अनुलोम उपसर्ग हैं। यह कहा जाता है कि जीवन में बाधा डालने वाले उदीर्ण उपसर्गों में भी मनुष्य मध्यस्थ रह सकता है, किन्तु पूजा, सत्कार आदि अनुलोम उपसर्गों का पार पाना बहुत कठिन है । ये पाताल की भांति दुरुत्तर हैं।' वृत्तिकार के अनुसार संग का अर्थ है-माता, पिता आदि ज्ञातिजनों का संबंध ।' ये संग प्रायः मानसिक विकृति को उत्पन्न करते हैं । ये संग आन्तरिक हैं, इसलिये इन्हें सूक्ष्म कहा है। प्रतिकूल उपसर्ग प्रायः शरीर-विकार के कारण बनते हैं, अतः वे स्थूल हैं। श्लोक १६: ३०. पोषण करो (पोस) ज्ञातिजन प्रवजित होने वाले या पूर्व-प्रवजित अपने व्यक्ति को कहते हैं-हे तात! हमने इसी आशा से तुम्हार पोषण किया है कि तुम बड़े होकर हम बूढ़ों का पोषण करोगे। अब इस अवस्था में हम काम करने में असमर्थ हैं। अब तुम हमारा पोषण करो। १. दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति गाथा १०४-१०७, चूणि । २. चूणि, पृ० ८३ : संगो त्ति वा विग्यो त्ति वा वक्खोडो त्ति वा एगलैं । ३. वही, पृ० ८३ : सुहुमा णाम णिउणा, न प्राणव्यपरोपणवत् स्थरमूर्तयः, उपायेन धर्माच्च्यावयन्ति । उक्तं हि-शक्यं जीवित विघ्न करैरप्युपसर्गरदीर्णः माध्यस्थ्यं भावयितुम् । अनुलोमा पुण पूजा-सत्कारादय ...."वक्ष्यति हि-पाताला व दुरुत्तरा (अतारिमा ३।२६)। ४. वृत्ति, पत्र ८५: सङ्गाः मातापित्रादिसम्बन्धाः। ५. वही, पत्र ८५ ते च सूक्ष्माः प्रायश्चेतोविकारकारित्वेनान्तराः, न प्रतिकूलोपसर्गा इव बाहुल्येन शरीरविकारित्वेन प्रकटतया बादरा इति । ६. (क) चूणि, पृ०६३ : ज्ञातयो माता-पित्रावि पब्वयंत पुग्वपम्वइतं वा बठूर्ण रुयंति । किधं ?, किवण-करुणाणि-नाथ ! पिय ! कत ! सामिय !" परिवारिया दश्वतो भावतोय। वयं वृद्धा कर्मासहिष्णवः, तदिदानी पोसाहि णे, आबाल्यात् पुट्ठो मादादिभिः। (ख) वृत्ति, पत्र ८५ : स्वजना मातापित्रादयः प्रव्रजन्तं प्रवजितं वा दृष्ट्वा उपलभ्य परिवार्य वेष्टयित्वा रुदन्ति रुदन्तो वदन्ति च दीनं, यथा-बाल्यात् प्रभृति स्वमस्माभिः पोषितो वृद्धानां पालको भविष्यतीति कृत्वा, ततोऽधुना नः अस्मानपि त्वं तात ! पुत्र! पोषय पालय, कस्य कृते-केन कारणेन कस्य वा बलेन तातास्मानू त्यजसि ?, नास्माकं भवन्तमन्तरेण कश्चित्त्राता विद्यत इति । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy