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________________ सूयगडो १ अध्ययन ३ : टिप्पण २४-२५ f श्लोक १५: २४. सीमान्त प्रदेश में रहने वाले (पलियंसंसि) पर्यन्त का अर्थ है-सीमान्त प्रदेश ।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ-अनार्य देश का सीमान्त प्रदेश किया है। २५. लाल वस्त्रों से (कसायवसणेहि) चूर्णिकार ने 'कषाय' और 'वसन' इन दोनों पदों के भिन्न-भिन्न अर्थ किये हैं। कुछ लोग साधुओं को देखकर स्वभाव से क्रुद्ध हो जाते हैं और कुछ लोगों का यह व्यसन होता है कि वे कार्प टिक और पाषंडियों को बाधित करते हैं और उन्हें नचाते हैं।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ-कषायवचन-क्रोध प्रधान कटुक वचन किया है। वस्तुतः 'कषायवसन' का अर्थ लाल वस्त्र होना चहिये । प्राचीन काल में गुप्तचरों या चोरों को लाल वस्त्र से बांधने की प्रथा थी। श्लोक १६: २६. थप्पड़ से (फलेण) चूर्णिकार ने फल का अर्थ -चपेटा किया है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ बिजौरे के फल या खड्ग आदि किया है। २७. अज्ञानी भिक्षु वैसे ही अपने ज्ञातिजनों को याद करता है (णाईणं सरई बाले) पीटे जाने पर भिक्षु अपने ज्ञातिजनों को याद करता है। वह सोचता है यदि यहां मेरा भाई, बन्धु, मित्र या कोई संबंधी होता तो मुझे इस प्रकार की कदर्थना का सामना नहीं करना पड़ता । मेरे पर यह विपत्ति नहीं आती।' २८. रूठकर घर से भाग जाने वाली स्त्री (इत्थी वा कुद्धगामिणी) कोई स्त्री क्रूद्ध होकर अपने घर से निकल जाती है, किन्तु उसे कहीं भी आश्रय नहीं मिलता । लोग उसके पीछे लग जाते हैं । वे उसे पीड़ित करते हैं। चोर आदि लुटेरे भी उसे सताते हैं, तब उसे अपने कृत्य पर पश्चात्ताप होता है और वह अपने ज्ञातिजनों का स्मरण करती है। वह सोचती है, यदि मैं अपना घर छोड़कर नहीं आती तो मुझे आज इस कष्ट का सामना नहीं करना पड़ता। चूर्णिकार ने यहां 'अचंकारिय भट्टा' के उदाहरण का संकेत किया है। वह उदाहरण इस प्रकार है एक गांव में एक सेठ रहता था। उसके आठ पुत्र थे। बाद में एक पुत्री हुई। उसका नाम अचंकारिय भट्टा रखा । वह युवती हुई तब अमात्य ने उसकी याचना की। सेठ ने कहा- मुझे पुत्री देने में कोई बाधा नहीं है। किन्तु एक शर्त है कि इसके अपराध कर देने पर भी आप इसे उपालंभ नहीं दे सकेंगे। अमात्य ने इस बात को स्वीकार कर लिया। वह अमात्य की पत्नी हो १. चूणि, पृ०५२ : पडियंतं समन्तादन्तं परियन्तं । कस्य ? देशस्य । २. वृत्ति, पत्र ८४ : पलियंते सि ति अनार्यदेशपर्यन्ते । ३. चूणि पृ० ८२ : कसाय-बसणेहि य त्ति, तत्पुरुषः समास: द्वन्द्वो वाऽयम्, सभावत एव केचित् साधून् दृष्ट्वा कसाइज्जंति, वसणं केसिंच भवति-कप्पडिग-पासंडिया बाहेति णच्चावेंति वा । ४. वृत्ति, पत्र ८४ : कषायवचनैश्च क्रोधप्रधानकटकवचननिर्भसंयन्तीति । ५. चूणि, पृ० ८२ : फलं चवेडाप्रहारः । ६ वृत्ति, पत्र ८४ : फलेन वा मातुलिङ्गादिना खङ्गादिना वा। ७. (क) चूणि, पृ०८४ : जइ णाम णातयो केयि एत्थ होत्या (होता) भाति-मित्तादयो णाहमेवंविधा आवति पावेतो। (ख) वृत्ति, पत्र ८४ : कश्चिदपरिणतः बाल: अज्ञो 'ज्ञातीनां' स्वजनानां स्मरति, तद्यथा-यदत्र मम कश्चित् सम्बंधी स्यात् नाहमेवम्भूतां कदर्थनामवाप्नुयामिति । ८. वृत्ति, पत्र, ८४ : यया स्त्री क्रुद्धा सती स्वगृहात् गमनशीला निराश्रया मांसपेशीव सर्वस्पृहणीया तस्करादिभिरभिद्रुता सती जात पश्चात्तापा ज्ञातिनां स्मरति एवमसावपीति । ६. चूणि, पृ० ८२ : इत्थी वा कुद्धगामिणी , जधा सा अचंकातिभट्टा कुद्धा गच्छतो ति कुद्धगामिणी । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only ducation Intemational www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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