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________________ सूयगड १ ५५६ अध्ययन १४ प्रामुख हैं वहां एक दूसरे को सहने से ही हो सकता है। मुनि जन्म-पर्याय से छोटे-बड़े या दीक्षान्यवय से छोटे-बड़े सहदीक्षित या अन्य किसी भी प्रकार से मुनि द्वारा अनुशासित किए जाने पर, अनुशासन को स्वीकार करे । अत्यन्त तुच्छ गृहस्थ भी यदि अनुशासना करे तो उस पर भी क्रोध न करे, कठोर वचन न कहे। 'यह मेरे लिए श्रेयस्कर है, ऐसा सोचकर उसे स्वीकार करे ।' इसी प्रकार आगे के छह श्लोकों में ब्रह्मचर्य - गुरुकुलवास में रहने का फल बतलाया गया है। वह इस प्रकार है १. ज्ञानप्राप्ति और धर्म की सम्यग् अवगति । २. संयम की परिपक्वता । ३. मानसिक प्रद्वेष का विनयन । ४. समाधि प्राप्ति का अवबोध । ५. धर्म, समाधि और मार्ग का ज्ञान और आचरण की निपुणता । ६. चित्त की शांति और निरोध की प्रक्रिया का अवबोध | ७. अप्रमत्त साधना का अभ्यास । ८. प्रतिभा और विशारदता का विकास । अंतिम दस श्लोकों (१८-२७) में बी के कर्तों का स्कुट निर्देश है जो गुरुकुतनाव में रहता है वह निपुण पन्थी (भावग्रन्थी) बन जाता है | उसे क्या कहना चाहिए और क्या नहीं कहना चाहिए, इसका स्पष्ट विवेक इन श्लोकों में प्रतिपादित है । इन श्लोकों में भाषा - विवेक के निर्देश इस प्रकार प्राप्त हैं Jain Education International अर्थ को न छिपाए । अप-सिद्धान्त का निरूपण न करे । परिहास न करे । प्रशस्ति वचन न कहे । असाधु वचन न कहे । स्व-प्रशंसा न करे । विभज्यवाद से बोले । सत्यभाषा और व्यवहार भाषा का प्रयोग करे । मंदमति श्रोता के लिए हेतु दृष्टान्त आदि का प्रयोग करे । कर्कश वचन न बोले । किसी के वचनों का तिरस्कार न करे । शीघ्र समाप्त होने वाली बात को न लंबाए । संगत, अर्थपूर्ण और अस्खलित बात कहे । आज्ञासिद्ध वचन का प्रयोग करे । पाप का विवेक करने वाले वचन का संधान करे । मर्यादा का अतिक्रमण कर न बोले । सिद्धान्त की यथार्थ प्ररूपणा करे । अपरिणत को रहस्य न बताए । और अर्थ को अन्यथा न करे । सूत्र वाद और श्रुत का सम्यक् प्रतिपादन करे । सूत्रपाठ का शुद्ध उच्चारण करे । प्रस्तुत अध्ययन में कुछेक शब्द विमर्शनीय हैं आसिसाबाद (श्लोक १९) मुनि किसी पर संतुष्ट होकर आशीर्वाद देते हुए यह न कहे स्वस्थ रहो, भाग्यशाली हो, तुम्हारा धन बढे, तुम्हें पुत्रों की प्राप्ति हो, आदि-आदि । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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