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सूयगड १
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अध्ययन १४ प्रामुख
हैं वहां एक दूसरे को सहने से ही हो सकता है। मुनि जन्म-पर्याय से छोटे-बड़े या दीक्षान्यवय से छोटे-बड़े सहदीक्षित या अन्य किसी भी प्रकार से मुनि द्वारा अनुशासित किए जाने पर, अनुशासन को स्वीकार करे । अत्यन्त तुच्छ गृहस्थ भी यदि अनुशासना करे तो उस पर भी क्रोध न करे, कठोर वचन न कहे। 'यह मेरे लिए श्रेयस्कर है, ऐसा सोचकर उसे स्वीकार करे ।'
इसी प्रकार आगे के छह श्लोकों में ब्रह्मचर्य - गुरुकुलवास में रहने का फल बतलाया गया है। वह इस प्रकार है
१. ज्ञानप्राप्ति और धर्म की सम्यग् अवगति ।
२. संयम की परिपक्वता ।
३. मानसिक प्रद्वेष का विनयन ।
४. समाधि प्राप्ति का अवबोध ।
५. धर्म, समाधि और मार्ग का ज्ञान और आचरण की निपुणता ।
६. चित्त की शांति और निरोध की प्रक्रिया का अवबोध |
७. अप्रमत्त साधना का अभ्यास ।
८. प्रतिभा और विशारदता का विकास ।
अंतिम दस श्लोकों (१८-२७) में बी के कर्तों का स्कुट निर्देश है जो गुरुकुतनाव में रहता है वह निपुण पन्थी (भावग्रन्थी) बन जाता है | उसे क्या कहना चाहिए और क्या नहीं कहना चाहिए, इसका स्पष्ट विवेक इन श्लोकों में प्रतिपादित है ।
इन श्लोकों में भाषा - विवेक के निर्देश इस प्रकार प्राप्त हैं
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अर्थ को न छिपाए ।
अप-सिद्धान्त का निरूपण न करे ।
परिहास न करे ।
प्रशस्ति वचन न कहे ।
असाधु वचन न कहे ।
स्व-प्रशंसा न करे ।
विभज्यवाद से बोले ।
सत्यभाषा और व्यवहार भाषा का प्रयोग करे ।
मंदमति श्रोता के लिए हेतु दृष्टान्त आदि का प्रयोग करे ।
कर्कश वचन न बोले ।
किसी के वचनों का तिरस्कार न करे ।
शीघ्र समाप्त होने वाली बात को न लंबाए ।
संगत, अर्थपूर्ण और अस्खलित बात कहे ।
आज्ञासिद्ध वचन का प्रयोग करे ।
पाप का विवेक करने वाले वचन का संधान करे ।
मर्यादा का अतिक्रमण कर न बोले ।
सिद्धान्त की यथार्थ प्ररूपणा करे ।
अपरिणत को रहस्य न बताए । और अर्थ को अन्यथा न करे ।
सूत्र
वाद और श्रुत का सम्यक् प्रतिपादन करे ।
सूत्रपाठ का शुद्ध उच्चारण करे ।
प्रस्तुत अध्ययन में कुछेक शब्द विमर्शनीय हैं
आसिसाबाद (श्लोक १९)
मुनि किसी पर संतुष्ट होकर आशीर्वाद देते हुए यह न कहे स्वस्थ रहो, भाग्यशाली हो, तुम्हारा धन बढे, तुम्हें पुत्रों की प्राप्ति हो, आदि-आदि ।
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