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आमुख
इस अध्ययन का नामकरण भी आदानपद के आधार पर 'ग्रन्थ' रखा गया है । वृत्तिकार ने नामकरण का आधार गुणनिष्पन्नता भी माना है ।"
ग्रन्थ का अर्थ है - आत्मा को बांधने वाला तत्त्व । चूर्णिकार के अनुसार ग्रन्थ दो प्रकार का होता है— द्रव्यग्रन्थ और भावग्रन्थ । द्रव्यग्रन्थ सावद्य होता है । भावग्रन्थ के दो प्रकार हैं
प्रशस्तभावग्रन्थ - ज्ञान, दर्शन चारित्र ।
अप्रशस्तभावग्रन्थ प्राणातिपात आदि तथा मिथ्यात्व आदि ।
ग्रन्थ का अर्थ आचारांग आदि आगम भी है। जो शिष्य उनको पढ़ता है, वह भी ग्रन्थ कहलाता है। शिष्य दो प्रकार के
होते हैं
होते है-
१. प्रव्रज्या शिष्य – स्वयं गुरु द्वारा दीक्षित |
-
२. शिक्षा शिष्य आचार्य आदि के पास शिक्षा ग्रहण करने वाला शिष्य ।
आचार्य भी दो प्रकार के होते हैं- प्रव्रज्या आचार्य और शिक्षा - आचार्य ( वाचनाचार्य ) । शिक्षा आचार्य दो प्रकार के
+
१. शास्त्रपाठ की वाचना देने वाले ।
२. अर्थ की वाचना देने वाले तथा सामाचारी का सम्यग् पालन कराने वाले ।
दोनों प्रकार के ग्रन्थों - बाह्य और आभ्यन्तर की पूरी जानकारी आचार्य से ही प्राप्त हो सकती है वे श्रुत- पारगामी होते हैं। उनकी शिक्षा के अनुसार शिष्य 'ग्रन्थ' (ग्रन्थियों) के स्वरूप को समझकर धन-धान्य आदि बाह्य ग्रन्थों तथा, मिथ्यात्व. अज्ञान आदि आभ्यन्तर ग्रन्थों (ग्रन्थियों) को क्षीण करने का प्रयत्न करे। मुनि ग्रन्थ विनिर्मुक्त होकर ही निर्ग्रन्थ बन सकता है । निर्ग्रन्थ ही मोक्ष का अधिकारी होता है ।
जैसे रोगी चतुर वैद्य के निर्देश का पालन करता हुआ रोगमुक्त हो जाता है वैसे ही मुनि भी सावद्य ग्रन्थों को छोड़कर पापकर्म को दूर करने वाली औषधि रूप प्रशस्त भावग्रन्थ- ज्ञान, दर्शन, चारित्र को स्वीकार करे । उसका कर्मरूपी रोग शान्त हो जाएगा।"
प्रस्तुत अध्ययन में गुरुकुलवास की निष्पत्तियों का बहुत सुन्दर विवेचन है। सूत्रकार ने उदाहरणों से उन्हें स्पष्ट किया है । गुरुकुलबास का वाचक शब्द है 'ब्रह्मचर्य' ब्रह्मचर्य के तीन अर्थ हैं- चारित्र, नौ गुप्तियुक्त मैथुन- विरति और गुरुकुलबास ।' आचार, आचरण, संवर, संयम और ब्रह्मचर्य - ये एकार्थक हैं । *
जो गुरुकुल (ब्रह्मचर्य) में वास करता है उसे ग्रन्थ का सम्यग्ज्ञान हो सकता है । गुरुकुलवास में ही सामाचारी और परंपराओं की जानकारी होती है। इनकी जानकारी के अभाव में मुनि अपरिपक्व रह जाता है । वह अपुष्टधर्मा मुनि अहंकार से ग्रस्त होकर, आचार्य की अवज्ञा कर, एकलविहार आदि प्रतिमा के लिए सक्षम न होने पर भी उसे स्वीकार कर गण से अलग हो जाता है । वह उसी प्रकार नष्ट हो जाता है, जैसे पंखहीन पक्षी का बच्चा घोंसले से निकल कर उड़ने की चेष्टा करने पर दूसरे पक्षियों द्वारा मार दिया जाता है। इसलिए मुनि ग्रन्थ की शिक्षा के लिए गुरुकुलवास में रहे। यह प्रथम छह श्लोकों का प्रतिपाद्य है ।
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आगे के छह श्लोकों (७-१२)में
में रहने वाले मुनि को अनुशासन सहन करने की क्षमता अजित करने का उपदेश है । अकेले के लिए कोई अनुशासन नहीं होता। संघ अनुशासन से ही चलता है। गुरुकुलवास में सभी का सहावस्थान होता १. वृत्ति, पत्र २४७ : आदानपदाथ् गुणनिष्पन्नत्वाच्च ग्रन्थ इति नाम । २. वृत्ति, पत्र २४८ ।
३. चूर्ण, पृ० २२८ ।
४. चूर्णि, पृ० ४०३ ।
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