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सूयगड १
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४५. मनुष्यों में नानाप्रकार के भयों को देखकर (माण वेसु दट्ठ मयं )
मनुष्यों में नाना प्रकार के भय होते हैं । जन्म, बुढापा, मृत्यु, रोग, शोक तथा नरक और तिर्यञ्च योनि में होने वाले दुःख-ये सारे भय हैं ।'
४६. बचपन ( अज्ञान ) को छोड़ ( बालिएणं अलं भे)
'बालिक' का अर्थ है- बचपन, अज्ञान अवस्था ।
बुणिकार ने इसका अर्थ-कुशीतस्य किया है।'
'अलं भे' का संस्कृत रूप है--अलं भवतः ।
वृत्तिकार ने ‘बालिसेण अलंभे' पाठ की व्याख्या की है— बालिश को सदसत् विवेक का अलंभ ( अप्राप्ति) होता है ।'
४७. एकान्त दुःखमय ( एतदुक्खे)
इसका अर्थ है - एकान्त दुःखमय । निश्चय नय के अनुसार यह संसार एकान्त दुःखमय है। कहा भी हैं
'जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो को संसारो, जस्म कोसंति जंतयो ।'
जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, रोग दुःख है और मृत्यु दुःख है । अहो ! यह सारा संसार दुःखमय है, जहां प्राणी क्लेश
पाते हैं ।
४८. ( मूर्च्छा के) ज्वर से पीडित ( जरिए )
ज्वरित का अर्थ है— ज्वर से पीडित । चूर्णिकार ने इसका एक अर्थ ज्वलित भी किया है। मनुष्य शारीरिक और मानसिक दुःखों से तथा कषायों से सदा प्रज्वलित रहता है ।"
देखें- भगवई 8 | १७० ।
प्रस्तुत श्लोक के प्रथम दो चरण वृत्तिकार के अनुसार इस प्रकार हैं— संयुक्हा जंतो माणुसतं भयं वालिसेणं
अलंभो ।
अध्ययन ७ टिप्पण ४५-४८
प्राणियो ! तुम बोध प्राप्त करो। धर्म की प्राप्ति दुर्लभ है, मनुष्य जन्म दुर्लभ है, यह जानो । भय को देख कर, तथा मूर्ख ( अज्ञानी) को सत् असत् का विवेक प्राप्त नहीं होता ( यह समझ कर बोध को प्राप्त करो ) ।
चूर्णि और वृत्ति में पाठ-भेद है । इसके आधार पर अर्थ भेद भी है। अर्थ की दृष्टि से चूर्णि का पाठ संगत लगता है, इस लिए हमने चूर्णि का पाठ स्वीकार कर उसकी व्याख्या की है ।
१. वत्ति, पत्र १५८ : जातिजरामरण रोगशोकादीनि नरकतिर्यक्षु च तोयदुःखतया भयं दृष्ट्वा ।
२. णि पृ० १५६ालमावो हि बालिकं शीलत्वमित्यर्थः ।
३. वृत्ति, पत्र १५८ : बालिशेन अज्ञेन सदसद्विवेकस्यालम्भः ।
४. ( क ) चूर्ण, पृष्ठ १५६ : णिच्छंयणतं पडुच्च एतदुक्खो संसारः ।
(ख) वृत्ति, पत्र १५८ : निश्चयनयमवगम्य एकान्तदुःखोऽयं ज्वरित इथ 'लोक' संसारिप्राणिगणः ।
५. उत्तरज्झयणाणि १६।१५ ।
६
पृष्ठ १५६ यरितवलित सरीर-माणसे हि दुख-दोमणरहिवाश्च नित्यप्रतिवारितः । ७. वृत्ति पत्र १५८ ।
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