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________________ सूयगड १ ३३६ ४५. मनुष्यों में नानाप्रकार के भयों को देखकर (माण वेसु दट्ठ मयं ) मनुष्यों में नाना प्रकार के भय होते हैं । जन्म, बुढापा, मृत्यु, रोग, शोक तथा नरक और तिर्यञ्च योनि में होने वाले दुःख-ये सारे भय हैं ।' ४६. बचपन ( अज्ञान ) को छोड़ ( बालिएणं अलं भे) 'बालिक' का अर्थ है- बचपन, अज्ञान अवस्था । बुणिकार ने इसका अर्थ-कुशीतस्य किया है।' 'अलं भे' का संस्कृत रूप है--अलं भवतः । वृत्तिकार ने ‘बालिसेण अलंभे' पाठ की व्याख्या की है— बालिश को सदसत् विवेक का अलंभ ( अप्राप्ति) होता है ।' ४७. एकान्त दुःखमय ( एतदुक्खे) इसका अर्थ है - एकान्त दुःखमय । निश्चय नय के अनुसार यह संसार एकान्त दुःखमय है। कहा भी हैं 'जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो को संसारो, जस्म कोसंति जंतयो ।' जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, रोग दुःख है और मृत्यु दुःख है । अहो ! यह सारा संसार दुःखमय है, जहां प्राणी क्लेश पाते हैं । ४८. ( मूर्च्छा के) ज्वर से पीडित ( जरिए ) ज्वरित का अर्थ है— ज्वर से पीडित । चूर्णिकार ने इसका एक अर्थ ज्वलित भी किया है। मनुष्य शारीरिक और मानसिक दुःखों से तथा कषायों से सदा प्रज्वलित रहता है ।" देखें- भगवई 8 | १७० । प्रस्तुत श्लोक के प्रथम दो चरण वृत्तिकार के अनुसार इस प्रकार हैं— संयुक्हा जंतो माणुसतं भयं वालिसेणं अलंभो । अध्ययन ७ टिप्पण ४५-४८ प्राणियो ! तुम बोध प्राप्त करो। धर्म की प्राप्ति दुर्लभ है, मनुष्य जन्म दुर्लभ है, यह जानो । भय को देख कर, तथा मूर्ख ( अज्ञानी) को सत् असत् का विवेक प्राप्त नहीं होता ( यह समझ कर बोध को प्राप्त करो ) । चूर्णि और वृत्ति में पाठ-भेद है । इसके आधार पर अर्थ भेद भी है। अर्थ की दृष्टि से चूर्णि का पाठ संगत लगता है, इस लिए हमने चूर्णि का पाठ स्वीकार कर उसकी व्याख्या की है । १. वत्ति, पत्र १५८ : जातिजरामरण रोगशोकादीनि नरकतिर्यक्षु च तोयदुःखतया भयं दृष्ट्वा । २. णि पृ० १५६ालमावो हि बालिकं शीलत्वमित्यर्थः । ३. वृत्ति, पत्र १५८ : बालिशेन अज्ञेन सदसद्विवेकस्यालम्भः । ४. ( क ) चूर्ण, पृष्ठ १५६ : णिच्छंयणतं पडुच्च एतदुक्खो संसारः । (ख) वृत्ति, पत्र १५८ : निश्चयनयमवगम्य एकान्तदुःखोऽयं ज्वरित इथ 'लोक' संसारिप्राणिगणः । ५. उत्तरज्झयणाणि १६।१५ । ६ पृष्ठ १५६ यरितवलित सरीर-माणसे हि दुख-दोमणरहिवाश्च नित्यप्रतिवारितः । ७. वृत्ति पत्र १५८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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