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________________ सूयगो १ ४६. मूढ मनुष्य (मूढा ) ५०. नमक (आहारसंपज्ञ्जण) ३४० श्लोक १२ : अज्ञान से आच्छादित बुद्धि वाले तथा जो दूसरों के द्वारा मूढ बनाए गए हैं वे मूढ कहलाते हैं।' इसका संस्कृत रूप है- आहारसंप्रज्वलन । छन्द की दृष्टि से लकार का लोप होने पर 'संपज्जण' रूप शेष रहा है। इसका अर्थ है - नमक । वह आहार को संप्रज्वलित करता है। आहार का व्युत्पत्तिक अर्थ है - जो बुद्धि, आयु, बल आदि विशेष शक्तियों का आहरण करता है, लाता है, वह 'आहार' है ।' चूर्णि और वृत्ति में 'आहार संपज्जण' - इन तीन पदों की व्याख्या की है। नमक आहार की संपदा को पैदा करता है इसलिए उसका नाम 'आहारसंपज्जण' है । चूर्णिकार और वृत्तिकार ने दो पाठान्तरों का उल्लेख किया है- 'आहार सपंचग' तथा 'आहारपंचग' । 'आहारसपंचग' (सं० आहारसपञ्चक) का अर्थ है- आहार के साथ पांच प्रकार के लवणों के वर्जन द्वारा पांच प्रकार के लवण ये हैं सैंधव, सौवर्चल, बिड, रोम और सामुद्रिक । सुश्रुत (४६।३१३) में छह प्रकार के लवणों का नामोल्लेख है। सैंधव नमक सिन्धु देश में प्राप्त होता था। शाकम्भरी (शकों का देश ), एशिया माइनर तथा काश्यपीयसर (कास्पियन सागर) से प्राप्तलवण रुमा या रोमन कहलाता था। दक्षिण समुद्र तथा ईरान की खाड़ी से प्राप्त होने वाला नमक सामुद्रिक कहलाता था । 'रूमा सर' या रोम सागर भूमध्य सागर का नाम है। एशिया माइनर का यह प्रदेश रूम देश कहलाता था, क्योंकि यह रोमन (इटली) लोगों के अधिकार में था । यह स्थान नमक की उत्पत्ति के लिए प्रसिद्ध था । आज तक कास्पियन सागर के दक्षिणपश्चिम में नमक के कछार है ।" अध्ययन ७ टिप्पण ४६-५० दशवैकालिक सूत्र (३1८) में सौवर्चल, सैंधव, रुमा, सामुद्रिक, पांशु-क्षार और काल- लवण - ये छह प्रकार के लवण बतलाए गए हैं। इस सूत्र के दोनों चूर्णिकार अगस्त्य सिंह स्थविर और जिनदास महत्तर तथा वृत्तिकार हरिभद्रसूरी ने इनकी व्याख्या में अनेक प्रकार की जानकारी दी है। विशेष विवरण के लिए देखें - दसवेआलियं ३15 का टिप्पण । पूर्णिकार के अनुसार लवण ही भोजन के सभी रसों को उद्दिष्त करता है। कहा है लवणविणा व रसा, बहूणा व दिगामा । धम्मोदयाय रहियो सोख संतोसरहिये वो ॥ Jain Education International , नमक के बिना कोई रस नहीं होता, आंख के लिए इन्द्रिय-विषय अच्छे नहीं लगते, दया के विना धर्म धर्म नहीं होता बोर संतोष के बिना कोई सुख नहीं होता । जैसे -- 'लवणं रसानां तैलं स्नेहानां घृतं मेध्यानां - सभी रसों में लवण प्रधान है, स्निग्ध पदार्थों में तेल प्रधान हैं और मेधा १. (क) चूणि, पृ० १५७ : मूढा अयाणगा स्वयं मूढाः परैश्च मोहिताः । १५८ : मूढा अज्ञानाऽऽच्छादितमतयः परंश्च मोहिताः । " (ख) वृत्ति, पत्र २. पूर्णि, पृ० १५७ आहिते आहारपति बाहिर बुद्धयापुर्वादिविशेषान् या आनयतिहारयतीत्याहारः । ३. (क) चूर्ण, पृ० १५७ : ससाढ्याहारसम्पदं जनयतीति आहार संपज्जणं, (आहारसंपज्ञ्जणं) च तद् लवणम् । (ख) वृत्ति पत्र १५८ : आहार—ओदनादिस्तस्य सम्पद्- रसपुष्टिस्तां जनयतीत्याहार सम्पज्जननं -- लवणम् । ४. (क) वणि, पृ० १५७ । १५८ । (ख) वृत्ति, पत्र ५. (क) णि, पृ० १५७ (ख) वृत्ति, पत्र १४८ ६. भारत के प्राणाचार्य पृ० १५३, मूल तथा फुट नोट । ७. णि, पृ० १५७ : लवणं हि सर्वरसानदीयति । अधवा' आहा रेणं समं पंचगं' आहारेण हि सह पंच लवणाणि, तं जधा - सैन्धवं सोक्च्चलं बिडं रोमं समुद्र इति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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