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________________ सूयगडा १ ३४१ अध्ययन ७: टिप्पण ५१-५३ बढ़ाने वाले पदार्थों में घी प्रधान है।' जो व्यक्ति लवण का परित्याग करता है वह वस्तुत: रस का ही परित्याग कर देता है । वह रस पर विजय पा लेता दूसरा पाठान्तर है- 'आहारपंचग' । पांच प्रकार का वर्जनीय आहार यह है-मद्य, लहसुन, प्वाज, ऊंटनी का दूध और गोमांस ।' कुछ व्यक्ति नमक को छोड़ने से और कुछ इन पांच प्रकार के भोजन को छोड़ने से मोक्ष बतलाते हैं।' चूर्णिकार ने एक तीसरा पाठान्तर माना है--- 'अट्ठप्पलवणं ण परिहरति' । इसका अर्थ है-जो क्षार नमक का परिहार नहीं करता। ५१. कुछ मनुष्य (एगे) चूणिकार और वृत्तिकार ने इस शब्द के द्वारा परिव्राजक और भागवत की ओर इंगित किया है।' ५२. सजीव जल से स्नान करने (सीतोदगसेवणेणं) सीत का अर्थ है--सजीव और उदक का अर्थ है-जल । 'सीतोदग' का अर्थ है--सजीव जल । परिव्राजक आदि इसका उपयोग स्नान करने, पीने, हाथ-पैर धोने में करते थे। वे मानते हैं कि सजीव जल के सेवन से मोक्ष प्राप्त होता है। इसका आशय है कि जैसे जल बाह्य मल को दूर करता है वैसे ही वह आन्तरिक मल को भी दूर करता है। जैसे बाह्य-शुद्धि जल से होती है, उसी प्रकार आन्तरिक शुद्धि भी उसी से हो सकती ५३. (हुतेण एगे .........) विभिन्न प्रकार के तापस और ब्राह्मण हवन से मुक्ति बतलाते हैं। वे मानते हैं कि जो व्यक्ति स्वर्ग आदि फल की आशंसा न करता हुआ समिधा, घृत, आदि हव्य विशेष के द्वारा अग्नि को तृप्त करता है, हवन करता है, वह मोक्ष के लिए वैसा करता है । जो किसी आशंसा से हवन करता है वह अभ्युदय के लिए होता है। जैसे अग्नि स्वर्ण-मल को जलाने में समर्थ है वैसे ही वह मनुष्य के आन्तरिक पापों को जलाने में भी समर्थ है। १. (क) चूणि, पृ० १५७ । (ख) वृत्ति, पत्र १५८ । २. वृत्ति, पत्र १५६ : तदेवम्भूतलवणपरिवर्जनेन रसपरित्याग एव कृतो भवति । ३. (क) चूणि, पृ० १५७ : अधवा आहारपंचगं तद्यथा---'मज्जं लसुण पलंडु खोरं करभं तधेव गोमंसं । (ख) वृत्ति, पत्र १५६ ।। ४. वृत्ति, पत्र १५६ : तत् (लवणं) त्यागाच्च मोक्षावाप्ति.... आहारपञ्चकवर्जनेन मोक्ष प्रवदन्ति । ५ चूणि, पृ० १५७ : फुट नोट नं. ३ ६. (क) चूणि, पृ० १५७ : वारिभद्दगा तु एगे ....... परिवाइ भागवतादयः । (ख) वृत्ति, पत्र १५६ : तथैके वारिभद्रकादयो भागवतविशेषाः ।। ७. चणि, पृ० १५७ : सीतोगसेवणेणं स्नान-पान-हस्तपादधावनेन सीतोदगसेवणं तव च निवास:, सीतमिति अधिगतजीवं अमुष्ठा (? अनुष्णा) त्रितप्तं वा, परिवाड-भागवतादयोऽपि शीतोदकं सेवन्ति। ८. वृत्ति, पत्र १५६ : सचित्ताप्कायपरिभोगेन मोक्ष प्रवदन्ति, उपपत्ति च ते अभिदधति -यथोदकं बाह्यमलमपनयति एवमान्तरमपि, वस्त्रादेश्च यथोदकाच्छुद्धि रुपजावते एवं बाह्यशुद्धि सामर्थ्यदर्शनादान्तरापि शुद्धिरुदकादेवेति मन्यन्ते । है. (क) बत्ति, पत्र १५६ : तथके तापसब्राह्मणादयो हुतेन मोक्ष प्रतिपादयन्ति, ये किल स्वर्गादिफलमनाशंस्य समिधाघतादिभिर्हव्य विशेषैर्हताशनं तर्पयन्ति ते मोक्षायाग्निहोत्रं जुह्वति शेषास्त्वभ्युदयायेति, युक्ति चात्र ते आहुः-यथा ह्यग्निः सुवर्णादीनां मलं दहत्येवं दहनसामर्थ्यदर्शनादात्मनोऽप्यान्तरं पापमिति । (ख) चुणि, पृ० १५७ : तापसादयो हि इष्टः समिद्-घृतादिभिर्हव्यः हुताशनं तर्पयन्तो मोक्षमिच्छन्ति तत्र कुन्थ्वादीन् सत्वान्न गणयन्ति ये तत्र बान्ते ... "ये किल स्वर्गादिफलमनाशंस्य जुह्वति ते मोक्षाय, शेषास्तु अभ्युदयाय । Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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