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________________ सूयगडो १ ३४२ चूर्णिकार ने यहां 'मोक्ष' का अर्थ- संपूर्ण मोक्ष या दरिद्रता आदि दुःखों से मोक्ष माना है ।' श्लोक १३ : ५४. क्षार नमक (खारस्स लोणस्स ) बूर्णिकार ने इसका अर्थ-खारी मिट्टी (नोनी-मिट्टी) से निकाला हुआ नमक किया है। अगस्त्यसिंह स्थविर ने भी यही अर्थ किया है।" दशकालिक ३/८ में सुखारे' शब्द का प्रयोग है। इसका अर्थ है-पांशुवार अर्थात् ऊपर लक्ष्य (देखें दसवेलियं ३/८ का टिप्पण यहां लवण शब्द से पांचों प्रकार के लवण गृहीत है । " ५५. गोमांस (मंसं ) यहां मांस से गो मांस का ग्रहण किया गया है। इसका तात्पर्य है कि अनेक साधु-संन्यासी गो मांस को छोड़कर अन्य मांस का भक्षण करते थे । ५६. न खाने मात्र से (अमोच्चा) चूर्णिकार ने 'अभोच्चा" और वृत्तिकार ने 'भोच्चा" मानकर व्याख्या की है । चूर्णिकार के अनुसार प्रस्तुत श्लोक के तीसरे चौथे चरण का अर्थ इस प्रकार होगा - वे मद्य, मांस और लहसुन न खाने मात्र से मोक्ष की परिकल्पना करते हैं । " अध्ययन ७ टिप्पण ५४-५७ वृत्तिकार के अनुसार इनका अर्थ होगा - वे मद्य, मांस और लहसुन खाकर मोक्ष से अन्यत्र - संसार में निवास करते हैं ।' ५७. मोक्ष की ( अण्णत्य वासं ) पूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए है" Jain Education International १. अन्यत्र वास- -मोक्ष वास । २. जो इष्ट नहीं है, वहां वास करना अर्थात् संसार में वास करना । वृत्तिकार ने इसका अर्थ-संसारवास किया है। " १. चूर्ण, पृ० १५७ : मोक्षो ह्यविशिष्टः सर्वविमोक्षो वा दरिद्रादुःखविमोक्षो वा । २. चूर्ण, पृ० १५७ : खारो नाम अट्ठष्पं । २. बसवेल अवस्य पृ० ६२ पंखारो ऊस तो आयुष्यं भवति । ४. ( क ) चूणि, पृ० १५७ : तदादीन्यन्यानि पञ्च लवणानि । (ख) वृत्ति, पत्र १५ε: क्षारस्स पञ्चप्रकारस्यापि लवणस्य । ५. चूर्णि, पृ० १५७ : मांसमिति गोमांसम् । ६. चुणि, पृ० १५७ : एतान्यमोच्चा । ७. वृत्ति, पत्र १५६ : भुक्त्वा । ८. चूर्ण, पृ० १५७ । ६. वृत्ति, पत्र १५ । १० चूर्ण, पृ० १५७: अन्यत्रवासो नाम मोक्षावासः । अथवा अन्यत्रवासो नाम यत्रेच्छति यदीप्सितं वा न तत्र वासं परिकल्पयन्ति अत्रैव संसारे चैव । ११. वृत्ति, पत्र १५६ : अन्यत्र मोक्षादन्यत्र संसारे वासम् अवस्थानम् । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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