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________________ सूयगडो १ ३४३ अध्ययन ७ : टिप्पण ५८-६१ श्लोक १४: ५८. सांझ (सायं) चूर्णिकार ने इसका अर्थ रात्रि' और वृत्तिकार ने अपरान्ह या विकाल-बेला किया है।' ५६. श्लोक १४: प्रस्तुत श्लोक का प्रतिपाद्य है कि जो मनुष्य स्नान आदि से मोक्ष की प्राप्ति बतलाते हैं, वे सच्चाई को नहीं जानते। यदि जल-स्पर्श से मुक्ति होती तो जल के आश्रय में रहने वाले क्रूर-कर्मा और निर्दयी मछुए कभी मुक्त हो जाते। यदि यह कहा जाए कि जल में मल को दूर करने का सामर्थ्य है, वह भी उचित नहीं है। जैसे जल बुरे मल को धो डालता है, वैसे ही वह प्रिय अंगराग को भी धो डालता है। इसका फलितार्थ यह हुआ कि वह पाप की भांति पुण्य को भी धो डालता है। इस दृष्टि से वह इष्ट का विघातक होता है। वस्तुतः ब्रह्मचारी मुनियों के लिए जल-स्नान दोष के लिए ही होता है—'यतीनां ब्रह्मचारिणामुदकस्नानं दोषायब ।" 'जल स्नान मद और दर्प को उत्पन्न करता है । वह 'काम' का प्रथम अंग है। इसलिए दान्त मुनि 'काम' का परित्याग कर कभी स्नान नहीं करते।' 'जल से भीगा हुआ शरीर वाला पुरुष ही स्नान किया हुआ नहीं माना जाता। किन्तु जो पुरुष व्रतों से स्नात है, वही स्नान किया हुआ कहा जाता है, क्योंकि वह अन्दर और बाहर से शुद्ध माना गया है।" श्लोक १५: ६०. जलसर्प (सिरीसिवा) इसका अर्थ है-जलसर्प । चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-मगरमच्छ और शिशुमार ।' ६१. बतख (मंगू) वृत्तिकार ने इसका अर्थ मद्गु-जल-काक किया है। आप्टे की डिक्शनरी में जल-वायस (काक) का अर्थ-डुबकी लगाने वाला पक्षी किया है -(Diver Bird)। चूर्णिकार ने इसका अर्थ कामज्जेगा (?) किया है।' पाइयसद्दमहण्णवो में 'कामजुग' को पक्षी-विशेष माना है। १. चूणि, पृ० १५७ : सायं ति रात्री। २. वृत्ति, पत्र १५६ : सायम् अपराह ने विकाले वा। ३. वत्ति, पत्र १५६ : स्नानादिकां क्रियां जलेन कुर्वन्तःप्राणिनो विशिष्टां गतिमाप्नुवन्तीति केचनोदाहरन्ति, एतच्चासम्यक, यतो या द कस्पर्शमात्रेण सिद्धिः स्यात् तत् उदकसमाश्रिता मत्स्यबन्धादय: क्रूरकर्माणो निरनुक्रोशा बहवः प्राणिनः सिद्धयेयुरिति, यदपि तैरुच्यते-बाह्यमलापनयनसामर्थ्यमुदकस्य दृष्टमिति तदपि विचार्यमाणं न घटते, यतो यथोदकमनिष्टमलमपनयत्येवमभिमतमत्यङ्गरागं कङ्कमादिकमपनय ति, ततश्च पुण्यस्यापनयनादिष्टविघातकृद्विरुद्धः स्यात्, किञ्च यतीनां ब्रह्मचारिणामुदकस्नानं दोषागैव, तथा चोक्तम् तस्मात् कामं परित्यज्य, न ते स्नान्ति बमे रताः ॥१॥ नोदकक्लिन्नगात्रो हि, स्नात इत्यभिधीयते । स स्नातो यो व्रतस्नातः, स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ::२॥ 'स्नानं मददर्पकरं, कामाङ्ग प्रथम स्मृतम् ।' ४. चूणि, पृ० १५८ : इह सिरीसिवा मगरा सुसुमारा य, चतुष्पादत्वात् सिरीसृपाः । ५. वृत्ति, पत्र १६० : तथा मद्गवः । ६ चूणिः पृ० १५६ : मंगू णाम कामज्जेगा। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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