SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूयगडो १ १७० अध्ययन ३: टिप्पण ९२-९५ श्लोक ६५ : ६२. भार को बीच में डाल देने वाले (वाहच्छिण्णा...........) _ 'वाह' का अर्थ है-भारोद्वहन और छिण्ण का अर्थ है-टूटे हुए या दबे हुए -भार से दबे हुए गधे की भांति । गधे अधिक भार को न सह सको के कारण भार को मार्ग के बीच में ही डाल कर गिर जाते हैं, वैसे ही ये मंद भिक्षु संयम-भार को छोड़कर शिथिल हो जाते हैं । यह वृत्तिकार की व्याख्या है।' ६३. कठिनाई के समय (संभमे) संभ्रम का अर्थ है ... कठिनाई के समय । चूणिकार ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है--वह कष्ट जिसमें व्यक्ति संभ्रांत हो जाता है, दिग्मूढ हो जाता है ।' वृत्ति कार ने अग्नि आदि के उपद्रव को संभ्रम माना है।' ६४. पंगु (पीढसप्पीव) इसका संस्कृत रूप 'पीठसपिन्' होगा। वृत्तिकार ने इसका संस्कृत रूप 'पृष्ठसपिन्' किया है।' आप्टे की डिक्शनरी में 'पीठसर्प' का अर्थ पंगु किया है।' श्लोक ६६ : ६५. सुख से सुख प्राप्त होता है (सातं सातेण विज्जई) सुख से सुख प्राप्त होता है--यह पक्ष चूणि और वृत्ति के अनुसार बौद्धों का है। जैन विचारधारा इससे भिन्न है। सुख से सुख प्राप्त होता है या दुःख से सुख प्राप्त होता है-ये दोनों सिद्धान्त वास्तविक नहीं हैं। यदि सुख से सुख प्राप्त हो तो राजा आदि अमीर आदमी अग ने जन्म में भी सुखी होंगे, किन्तु ऐसा होता नहीं है। दुःख से सुख प्राप्त हो तो अनेक दुःख झेलने वाले गरीब लोग अगले जन्म में सुखी होंगे, किन्तु ऐसा भी होता नहीं है।' बौद्ध साहित्य में निर्ग्रन्थों के मुंह से यह कहलाया गया है कि गुख से सुख प्राप्य नहीं है, दुःख से सुख प्राप्य है। इसका पूरा संदर्भ इस प्रकार है एक समय महानाम ! में राजगृह में गृध्रकूट पर्वत पर रहता था। उस समय बहुत से निग्रंथ ऋषि गिरि की कालशिला पर खड़े रहने का व्रत ले, आसन छोड़, ता करते हुए दुःख, कटु, तीव्र वेदना झेल रहे थे। ....... कारण पूछने पर निर्ग्रन्थों ने कहा-निर्ग्रन्थ नातपुत्र सर्वज्ञ, सर्वदर्शी .. . . . . हैं । वे ऐसा कहते हैं -निर्ग्रन्थों ! जो तुम्हारे पहले का किया हुआ कर्म है, उसे इस कड़वी दुष्कर-क्रिया (तपस्या) से नाश करा और जो यहां तुम काय-वचन-मन से संयमयुक्त हो, यह भविष्य के लिए पाप का १. वृत्ति, पत्र ९६ : वहन वाहो-भारोद्वहनं तेन छिन्ना:-कर्षितास्त्रुटिता रासमा इव विषीदन्ति, यथा-रासभा गमनपथ एव प्रोज्झितमारा निपतन्ति, एवं तेऽपि प्रोझ्य संयममारं शीतलविहारिणो भवन्ति । २. चूणि, पृ० ९६ : सम्भ्रमन्ति तस्मिन्निति सम्भ्रमः । ३. वृत्ति, पत्र ६६ : अग्न्यादिसम्भ्रमे । ४. वृत्ति, पत्र ६६ : पृष्ठसपिणः । ५. आप्टे, संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी पृष्ठ १०२४ में उद्धृत-महाभारत ३१३५।२२ : कर्तव्ये पुरुषव्याघ्र किमास्से पीठसर्पवत, Lame, Crippled. ६. (क) चूणि, पृ० ६६ : इदानीं शाक्या: परामृश्यन्ते .......... (ख) वृत्ति, पत्र ६७। ७. (क) चूणि पृ० ६६,६७ : इह नैर्ग्रन्थशासने सात साले न विद्यते । का भावना?-न हि सुखं सुखेन लभ्यते । यदि चेतमेवं तेनेह राजादीनामपि सुखिनां परत्र सुखेन भाव्यम् । नरकाणां तु दुःखितानां पुनने रकेनेव भाव्यम् । (ख) वृत्ति पत्र ९७ : आर्य मार्ग सजैनेन्द्रप्रवचनं म्यग्दर्शनज्ञानचारित्रमोक्षमार्गप्रतिपादकं सुखं सुखेनैव विद्यते इत्यादिमोहेन मोहिताः। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy