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सूयगडो १
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न करना होगा । इस प्रकार तपस्या द्वारा पुराने कर्मों के अन्त होने और नए कर्मों के न जाएगा । भविष्य में मल न होने से कर्म का क्षय, कर्मक्षय से दुःखक्षय, दु:बशा से वेदना हो जाएंगे।'
बुद्ध ने इस प्रकार निर्ग्रन्थों से पूछा कि क्या तुम्हें अपना होना ज्ञात है ? क्या तुमने उस समय पापकर्म किए थे ? क्या तुम्हें मालूम है कि इतना दुःख नष्ट हो गया, इतना बाकी है ? क्या तुम्हें मालूम है कि किस जन्म में पाप का नाश और पुण्य का लाभ प्राप्त करना है ? इसका उत्तर निर्ग्रन्थों ने 'नहीं' में दिया । इस प्रकार बुद्ध ने कहा- ऐसा होने से ही तो निर्ग्रन्थों ! जो दुनियां में रुद्र, खून रंगे हाथों वाले, क्रूरकर्मा मनुष्यों में नीच हैं, वे निर्ग्रन्थों में साधु बनते हैं ।' निर्ग्रन्थों ने फिर कहा-गोतम ! सुख से सुख प्राप्य नहीं है, दुःख से सुख प्राप्य है।'
६६. जो आर्यमार्ग है ( आरियं मग्गं )
वृत्तिकार ने आर्यमार्ग का अर्थ- जैनेन्द्र शासन में प्रतिपादित मोक्षमार्ग किया है। चूर्णिकार ने बौद्ध मत में सम्मत आर्यमार्ग का ग्रहण किया है।"
१७. उससे परम समाधि ( प्राप्त होती है ) ( परमं च समाहियं )
वृत्तिकार ने 'परमं च समाधि' से ज्ञान, दर्शन और चारित्र समाधि का ग्रहण किया है। चूर्णिकार ने बौद्धों के अनुसार मनः समाधि को परम माना है ।"
श्लोक ६७
८. लोह-वणिक् की भांति (अयोहारि व्य
कुछ व्यक्ति व्यापार करने के लिए देशान्तर के लिए प्रस्थित हुए। जाते-जाते एक महान् अटवी आई। वहां उन्हें एक लोह की खान मिली। सबने लोह लिया और आगे चल पड़े। कुछ दूर जाने पर उन्हें एक तांबे की खान मिली। सबने लोहा वहीं डालकर तांबा भर लिया, किन्तु एक व्यक्ति ने लोहे को छोड़ तांबे को लेने से इन्कार कर दिया। बहुत समझाने पर भी वह नहीं माना । सब आगे चले । कुछ ही दूरी पर चांदी की खान आ गई। सबने तांबे तो छोड़कर चांदी भर ली, किन्तु लोहमार वाले ने लोहा ही रखा। आगे सोने की खान आई सबने चांदी का भार वहीं छोड़कर सोने को भर लिया। आगे रत्नों की खान पर सबने रत्न भर लिए और सोना छोड़ दिया। उस लोहार वाले ने लोहा ही रखा और अपनी दृढ़ता पर प्रसन्नता का अनुभव करने लगा ।
अध्ययन ३ : टिप्पण ६६-88
करने से भविष्य में चित्त निर्मल हो और वेदनाक्षय से सभी दु:ख नष्ट
सब अपने-अपने घर पहुंचे। रत्नों के भरने वाले जीवन भर सुखी हो गए और लोहार वाला जीवन भर निर्धनता का जीवन बिताता हुआ दुःख और पश्चात्ताप करता रहा ।
६६. श्लोक ६७ :
चूर्णिकार ने प्रस्तुत श्लोक की व्याख्या पहले बौद्ध सिद्धान्तपरक और बाद में जैन सिद्धान्तपरक की है । देखें- चूर्णि पृष्ठ ९६, ९७ ।
१. मज्झिमनिकाय १४ । २ ६-८ राहुल सांकृत्यायन का अनुवाद, दर्शन दिग्दर्शन पृ० ४६६, ४६७ ।
२. वृत्ति, पत्र ε७ : आर्यों मार्गों जैनेन्द्रशासन प्रतिपादितो मोक्षमार्गः
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३. पुर्ण पृ० १६ तेनास्मदीयामा
४.
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पत्र ५ परमं च समाधि' ज्ञानदर्शनवारिणात्मकम् ।
५. चूर्ण, पृ० ६६ : मनः समाधिः परमा ।
६. रायपसेणइय ७४४ ।
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