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________________ सूयगडो १ १७२ अध्ययन ३: टिप्पण १००-१०३ श्लोक ६८ : १००. श्लोक ६८ : प्रस्तुत श्लोक का प्रतिपाद्य है कि शाक्य आदि श्रमग 'सातं सातेण विज्जई'-इस सिद्धान्त को मानते हुए पचन-पाचन आदि क्रियाओं में संलग्न रहते हैं । पचन-पाचन आदि सावद्य अनुष्ठानों से प्राणातिपात का सेवन करते हैं। जिन जीवों के शरीर का उपयोग किया जाता है, उनका ग्रहण उनके स्वामी की आज्ञा के बिना होता है, अतः अदत्तादान का आचरण होता है । गाय, भैंस, बकरी, ऊंट आदि को रखने और उनकी वंशवृद्धि करने के कारण मैथुन का अनुमोदन होता है। हम प्रवजित हैं-ऐसा कहते हुए भी गृहस्थोचित अनुष्ठान में संलग्न रहते हैं, अतः मृषावाद का सेवन होता है तथा धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद आदि रखने के कारण परिग्रह का प्रसंग आता है।' श्लोक ६६: १०१. कुछ अनार्य (एगे) चूर्णिकार ने इसके द्वारा शाक्य तथा उसी प्रकार के अन्य दार्शनिकों का ग्रहण किया है।' वृत्तिकार ने इस शब्द के माध्यम से विशेष बौद्ध तथा नीलपट धारण करने वाले और नाथवादिक मंडल में प्रविष्ट शैव विशेष का ग्रहण किया है।' १०२. पार्श्वस्थ (पासत्था) यहां चूमिकार ने इसका अर्थ-अहिंसा आदि गुणों तथा ज्ञान-दर्शन से दूर रहने वाला किया है।' वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं१. सद् अनुष्ठान से दूर रहने वाला । २. जैन परंपरा के शिथिल सावु-पार्श्वस्थ, अवसान, कुशील आदि जो स्त्री परीषह से पराजित हैं। यह शब्द इसी अध्ययन के ७३ वें श्लोक में भी आया है। वहां वृत्तिकार ने इस पद से नाथवादिक मंडलचारियों का ग्रहण किया है। विशेष विवरण के लिए देखें-११३२ का टिप्पण । श्लोक ७० १०३. स्त्री का परिभोग कर (विण्णवणित्थीसु) इसमें दो शब्द हैं-विण्णवणा और इत्थीसु । चूणिकार ने विज्ञापना का अर्थ परिभोग, आसेवना किया है। पूरे पद का अर्थ होगा-स्त्री का परिभोग ।' वृत्तिकार ने इसका संस्कृत रूप 'स्त्रोविज्ञापनायां किया है और इसका अर्थ 'युवती की प्रार्थना में किया है। हमने चूर्णिकार का अर्थ स्वीकार किया है। १. (क) चूणि, पृ० १७॥ (ख) वृत्ति, पत्र ६८। २. चूणि, पृ०६७ : एते इति एते शाक्याः अन्ये च तद्विधाः । ३. वृत्ति, पत्र ६८ : एके इति बौद्धविशेषा नीलपटादयो नाथवादिकमण्डलप्रविष्टा वा शैवविशेषाः । ४. चूणि, पृ० ६७ : पार्वे तिष्ठन्तीति पार्श्वस्थाः, केषाम् ?--अहिंसादीनां गुणानां णाणादीण वा सम्मइंसणस्स वा । ५. वृत्ति, पत्र, ९८ : पार्वे तिष्ठन्तीति पावस्थाः स्वयूथ्या वा पार्श्वस्थावसन्नकुशीलादयः स्त्रीपरीषहपराजिताः। ६. वृत्ति, पत्र ६९ : सदनुष्ठानात् पार्वे तिष्ठन्तीति पावस्था नाथवादिकमण्डलचारिणः । ७. चूणि, पृ०६७ : विज्ञापना नाम परिभोगः . . . . . . . आसेवना । ८. वृत्ति, पत्र ६८ : स्त्रीविज्ञापनायां युवतिप्रार्थनायाम् । Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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