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सूयगडो १
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अध्ययन ३ : टिप्पण १०४-१०६
श्लोक ७१: १०४. गुदला किए बिना (थिमियं)
इसका अर्थ है-हिलाए बिना । मेंढा घुटने के बल पर बैठकर गोष्पद में स्थित थोड़े से जल को भी बिना हिलाए-डलाए, बिना गुदला किए, पी लेता है।' १०५. पिंग (पिंग)
इसका अर्थ है- कपिजल पक्षिणी।
पिंग पक्षिणी आकाश में उड़ते-उड़ते नीचे उड़ान भरती है और तालाब आदि से चोंच में पानी भर पी लेती है। वह अपने शरीर से न पानी को छूती है और न उस पानी को हिलाती-डुलाती है। १०६. श्लोक ७०-७२ :
इन तीन श्लोकों में स्त्री-परिभोग का तीन दृष्टिकोणों से समर्थन किया गया है.---- १. स्त्री-परिभोग गांठ या फोड़े को दबाकर मवाद निकालने जैसा निर्दोष है। २. स्त्री-परिभोग मेंढे के जल पीने की क्रिया की तरह निर्दोष है । इसमें दूसरे को पीड़ा नहीं होती और स्वयं को भी सुख
की अनुभूति होती है। ३. स्त्री-परिभोग कपिजल पक्षिणी के उदकपान की तरह है । पुरुष राग-द्वेष से मुक्त होकर, पुत्र की प्राप्ति के लिए, ऋतुकाल में शास्त्रोक्त विधि से मैथुन सेवन करता है तो उसमें दोष नहीं है। कपिजल पक्षिणी आकाश से नीचे उड़ान भरकर, पानी की सतह से चोंच में पानी भर प्यास मिटा लेती है। उसकी पानी पीने की इस प्रक्रिया से न पानी से उसका स्पर्श होता है और न पानी गुदला होता है ।
इस प्रकार उदासीन भाव से किए जाने वाले स्त्री मैथुन में दोष नहीं है। उपर्युक्त तीनों उदाहरणों का निरसन करते हुये नियुक्तिकार कहते हैं१. जैसे कोई व्यक्ति मंडलान (तलटार) से किसी मनुष्य का शिर काट पराङ्मुख होकर बैठ जाए तो भी क्या वह अपराधी
के रूप में पकड़ा नहीं जाएगा? २. कोई विष का प्याला पीकर शान्त होकर बैठ जाए और यह सोचे कि मुझे किसीने नहीं देखा, तो भी क्या वह नहीं
मरेगा? ३. कोई राजा के खजाने से रत्न चुराकर निश्चिन्त भाव से बैठ जाए, तो भी क्या वह राजपुरुषों द्वारा नहीं पकड़ा जाएगा?
इन तीनों क्रियाओं में कोई उदासीन होकर बैठ जाए, फिर भी वह तद्-तद् विषयक परिणामों से नहीं बच सकता । सारे परिणाम उसे भुगतने ही पड़ते हैं।
इसी प्रकार कितनी ही उदासीनता या निर्लेपता से मैथुन का सेवन क्यों न किया जाए, उसमें रागभाव अवश्यंभावी है। वह निर्दोष हो ही नहीं सकता।'
१. (क) चूणि, पृ० १८ : सो जधा उदगं अकलुसेन्तो यण्णुएहि णिसोदितुं (णिसीदितुं) गोप्पए वि जलं अणाऽआलेतो पियति ।
(ख) वृत्ति, पत्र १८ : यथा मेषः तिमितम् अनालोडयन्नुदकं पिबत्यात्मानं प्रणियति, न च तथाऽन्येषां किञ्चनोपघातं विधत्ते । २. (क) चूणि, पृ०६८ : पिंगा पक्खिणी आगासेणऽवचरती उदगे अभिलीयमाना अविक्षोभयंती तज्जलं चंचूए पिबति ।
(ख) वृत्ति, पत्र ६६ : पिगे ति कपिजला साऽऽकाश एव वर्तमानाः तिमितं निभृतमुदकमापिबति । ३. (क) वृत्ति, पत्र ६६ : एवमुदासीनत्वेन व्यवस्थितानां दृष्टान्तेनैव नियुक्तिकारो गाथात्रयेणोत्तरदानायाह
जह णाम मंडलग्गेण सिरं छत्तू ण कस्सइ मणुस्सो। अच्छेज्ज पराहुत्तो कि नाम ततो ण धिप्पेज्जा ? ॥५१॥ जह वा विसगडूसं कोई घेत्तूण नाम तुण्णिहक्को । अण्णण अदीसंतो कि नाम ततो न व मरेज्जा! ॥५२॥
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