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सूयगडो १
अध्ययन ३ : टिप्पण १०७-१०८
श्लोक ७३: १०७. भेड (पूयणा)
इसके दो अर्थ हैं-भेड़ और डाकिन । चूर्णिकार ने केवल पहला अर्थ ही स्वीकार किया है।' वृत्तिकार ने डाकिन को मुख्य अर्थ माना है और वैकल्पिक अर्थ भेड़ किया है। हमने इसका अर्थ भेड़ स्वीकार किया है।
वृत्तिकार के अनुसार 'पूयणा इव तरुणए' के दो अर्थ हैं(१) जैसे डाकिन छोटे बच्चों में आसक्त होती है, वैसे । (२) जैसे गड्डरिका अपने बच्चे में आसक्त होती है वैसे । चूणिकार ने केवल दूसरा विकल्प ही स्वीकार किया है। इस प्रसंग में एक सुन्दर कथानक चूणि और वृत्ति में उद्धृत
एक बार कुछ मनुष्यों के मन में यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई कि किस जाति के जीव अपने बच्चों के प्रति अत्यन्त स्नेहिल होते हैं ? इसकी परीक्षा के लिए एक उपाय ढूंढा गया। एक बिना पानी के कुए में सभी जाति के जीवों के बच्चे डाल दिए गए। अपने-अपने बच्चों को विरह में कुछेक पशु कूए के पास आकर बैठ गए और अपने बच्चों के शब्दों को सुन-सुनकर रोने लगे किन्तु किसी ने कूए में कूदने का साहस नहीं किया। एक भेड़ वहां कूए के पास आई । कूए में गिरे हुए अपने बच्चे का शब्द सुनकर वह बिना किसी उपाय की चिन्ता किए कुए में कूद पड़ी। परीक्षकों ने जान लिया कि भेड़ अपने बच्चे के प्रति कितनी आसक्त होती है।
श्लोक ७४: १०८. परिताप करते हैं (परितप्पंति)
मरण-काल के प्राप्त होने पर अथवा यौवन के बीत जाने पर मनुष्य परिताप करते हैं।' चूणिकार ने एक श्लोक के द्वारा परिताप या शोक का चित्र प्रस्तुत किया है
'हतं मुष्टिभिराकाशं, तुषाणां कुट्टनं कृतम् ।
यन्मया प्राप्य मानुष्यं, सदर्थे नादरः कृतः ।' जह नाम सिरिघराओ कोइ रयणाणि णाम घेत्तृणं ।
अच्छेज्ज पराहुत्तो कि णाम ततो न घेप्पेज्जा ? ॥५३॥ (ख) चूणि, पृ० ६८ : चूर्णिकार ने नियुक्ति का उल्लेख किए बिना इन्हीं तीन गाथाओं का उल्लेख किया है। १. वृत्ति, पत्र ६६ : पूतना डाकिनी ...... 'यदिवा पूयण त्ति गड्डरिका । २. चूणि, पृ०६८ : पूयणा णाम औरणीया । ३. वृत्ति, पत्र ६६ : यथा वा पूतना डाकिनी तरुणके स्तनन्धयेऽध्युपपन्ना ....... "यदि वा पूयण त्ति गडरिका आत्मीयेऽपत्येऽ
ध्युपपन्नाः। ४. चूणि, पृ०६८ : तस्या अतीव तण्णगे छावके स्नेहः । ५. (क) चूणि, पृ० ६८ : जतो जिज्ञासुभि: कतरस्यां कतरस्यां जातौ प्रियतराणि स्तन्यकानि ? सर्वजातीनां छावकानि अनुदके कूपे
प्रक्षिप्तानि । ताश्च सर्वाः पशुजातय कूपतटे स्थित्वा सच्छावकानां शब्दं श्रुत्वा रम्भायमाणास्तिष्ठन्ति,
नाऽऽत्मानं कूपे मुञ्चन्ति, तत्रैकया पूतनया आत्मा मुक्तः । (ख) वृत्ति, पत्र ६६ : यथा किल सर्वपशूनामपत्यादि निरुदके कूपेऽपत्यस्नेहपरीक्षार्थ क्षिप्तानि, तत्र चापरा मातरः स्वकीयस्तनन्धय
शब्दाकर्णनेऽपि कूपतटस्था रुदन्त्यास्तिष्ठन्ति, उरभी त्वपत्यातिस्नेहेनान्धा अपायमनपेक्ष्य तत्रैवात्मानं क्षिप्त
बतीत्यतोऽपरपशुभ्यः स्वापत्येऽध्युपपन्नेति । ६. वृत्ति, पत्र १०० : क्षीणे स्वायुषि जातसंवेगा यौवने वाऽपगते 'परितप्यन्ते' शोचन्ते पश्चात्तापं विदधति ।
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