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________________ सूयगडो १ अध्ययन ३: टिप्पण १०६-११२ मैंने मनुष्य जन्म पाकर यदि उत्तम अर्थ के प्रति आदर प्रदर्शित नहीं किया, मेरा यह आचरण वैसा ही हुआ है जैसे मैंने मुक्कों से आकाश को पीटा और तुषों का खलिहान रचने का सांग किया।' श्लोक ७५: १०६. ठीक समय पर (काले) चूणिकार ने 'काल' का अर्थ-तारुण्य-मध्यमवय किया है । उन्होंने वैकल्पिकरूप में जिसके ध्यान, अध्ययन और तप का जो काल हो, उसका ग्रहण किया है।' वृत्तिकार ने 'काल' का तात्पर्य धर्मार्जन करने का समय किया है। उनके अनुसार धर्मार्जन करने का समय या अवस्था निश्चित नहीं होती। विवेकी व्यक्ति के लिए सभी समय और सभी अवस्थाएं धर्मार्जन के लिए उपयुक्त होती हैं । चार पुरुषार्थों में धर्म ही प्रधान पुरुषार्थ है और प्रधान तत्त्व का आचरण सदा उपयुक्त होता है। इसलिए बाल्य, तारुण्य और बुढ़ापा-ये तीनों अवस्थाएं इसमें गृहीत हैं। ११०. परिताप..... करते (परितप्पए) यहां एकवचन का निर्देश छन्द की दृष्टि से हुआ है।" १११. जीवन की (जीवियं) इसका अर्थ है--असंयममय जीवन । चूणिकार ने इसका अर्थ पूर्वभुक्त भोगमय असंयम जीवन किया है।' वृत्तिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ जीवन-मरण भी किया है।' श्लोक ७६ : ११२. वैतरणी नदी (वेयरणी) चूणि और वृत्ति के अनुसार इस नदी का प्रवाह अत्यन्त वेगवान् और इसके तट विषम हैं, इसीलिए इसे तरना बहुत कठिन होता है। नरक की एक नदी का नाम भी वैतरणी है, किन्तु प्रस्तुत श्लोक में निर्दिष्ट यह नदी नरक की नहीं है। उड़ीसा में आज भी वैतरणी नदी उपलब्ध है । वह बाढ़ के लिए प्रसिद्ध है। उसका प्रवाह बहुत वेगवान् है और उसके तटबंध भी विषम हैं। अतः प्रस्तुत प्रसंग में यही वैतरणी होनी चाहिए। आधुनिक विद्वानों ने उड़ीसा के अतिरिक्त गढ़वाल और कुरुक्षेत्र में भी वैतरणी नदी की खोज की है। जातक में अनेक स्थलों पर इस नदी का उल्लेख हुआ है किन्तु बौद्ध विद्वानों ने उसको इस लोक की नदी न मानकर उसे यमलोक की नदी ही माना है।' बौद्ध साहित्य में आठ ताप नरक माने हैं। प्रत्येक नरक के सोलह-सोलह उत्सद (यातना स्थान) हैं। चौथा उत्सद वैतरणी नदी है। इसका जल सदा उबलता रहता है। इसमें प्रज्वलित राख होती है। दोनों तीरों पर हाथ में १. चूणि, पृ० ६८। २. चूणि, पृ० ६६ : कालो नाम तारुण्यं मध्यमं वयः, यो वा यस्य कालो ध्यानस्याध्ययनस्य तपसो वा। ३. वृत्ति, पत्र १०० : काले धर्मार्जनावसरे......... .. धर्मार्जनकालस्तु विवेकनां प्रायशः सर्व एव, यस्मात् स एव प्रधानपुरुषार्थ, प्रधान एव च प्रायशः क्रियमाणो घटां प्राञ्चति, ततश्च ये बाल्यात्प्रभृत्यकृतविषयासङ्गतया कृततपश्चरणाः । ४. वृत्ति, पत्र १०० : एकदचननिर्देशस्तु सौत्रश्च्छान्दसत्वादिति । ५. चूणि, पृ० ६६ : जीवितं पुठवरत-पुवकोलितादिअसंजमजीवितं । ६. वृत्ति, पत्र १०० : असंयमजीवितं, यदिवा-जीविते मरणे वा। ७. (क) चूणि, पृष्ठ ६६ : सा हि तीक्ष्णश्रोतस्त्वाद् विषमतटत्वाच्च दुःखमुर्तीर्यते । (ख) वृत्ति, पत्र १०० : वैतरणी नदीनां मध्येऽत्यन्तवेगवाहित्वात् विषमतटत्वाच्च । ८. बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृ० १३६ । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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