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________________ सूयगडो १ १७६ अध्ययन ३ टिप्पण ११३-११६ असि, शक्ति और प्रास लिए हुए पुरुष होते हैं जो उन अपाय (नैरयिक) सत्वों को, जो उससे बाहर आना चाहते हैं, उसमें फिर ढकेल देते हैं । वे कभी वैतरणी के जल में मग्न होते हैं.....। इलोक ७७ : ११३. विकृति पैदा करने वाले (पूयणा) चूर्णिकार के अनुसार अन्न, पान, वस्त्र आदि से तथा स्नान, विलेपन आदि से शरीर की पूजा करना 'पूतना' है वैकल्पिक रूप में उनका मत है कि जो धर्म से नीचे गिराए या जो चारित्र का हनन करे वह 'पूतना' है अर्थात् विकृति है । हमने इस वैकल्पिक अर्थ को स्वीकार किया है। वृत्तिकार ने इसका संस्कृत रूप 'पूजना' कर व काम-विभूषिता किया है। श्लोक ७६ : ११४. झूठ बोलना छोडे ( मुसावायं विवज्जेज्जा ) मूलगुण की व्यवस्था में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - यह क्रम उपलब्ध होता है, फिर यहां मृषावाद के वर्जन का उपदेश क्यों दिया गया ? चूर्णिकार ने यह प्रश्न उपस्थित किया है और इसका उत्तर भी दिया है। उनका उत्तर बहुत ही मनोवैज्ञानिक है । सत्यनिष्ठ के ही व्रत होते हैं, असत्यनिष्ठ के नहीं होते । असत्यनिष्ठ मनुष्य प्रतिज्ञा का लोप भी कर सकता है । प्रतिज्ञा का लोप होने पर कोई व्रत नहीं बचता, इसलिए सर्व प्रथम मृषावाद के वर्जन का उपदेश बहुत महत्त्वपूर्ण है । * श्लोक ८० : ११५. श्लोक ८० : चूर्णिकार और वृत्तिकार के अनुसार प्रस्तुत श्लोक में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आधार पर प्राणातिपात को ग्रहण किया गया है - १. ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक् — इनसे क्षेत्र प्राणातिपात । २. त्रस और स्थावर - इनसे द्रव्य प्राणातिपांत । ३. सव्वत्थ ( सर्वत्र ) - इससे काल और भाव प्राणातिपात । प्रस्तुत श्लोक ८/१९ और ११/११ में भी है। ११६. सब अवस्थाओं में ( सव्वत्थ ) चूर्णिकार ने इसका अर्थ- सभी अवस्थाओं में और वृत्तिकार ने सर्वत्र काल में सब अवस्थाओं में दिया है । " १. अभिधर्मकोश, पृ० ३७४ (आचार्य नरेन्द्रदेव ) २. पूर्ण, पृ० १६ धूपगा नाम वस्त्रान्नपानादिभिः स्नाना उङ्गरागादिभिश्च शरीरपूजना पूतनाः पातयन्ति धर्मात् पास्यन्ति या चारित्रमिति पूतनाः पूतीकुर्वन्नित्यर्थः । २. वृत्ति पत्र १०० जना कामदा ४. गि, पृ० १०० अवृतिको कस्मान्मृषावादः पूर्वमुपदिष्टः १ न प्राणातिपातः इति उपयले सत्ययतो हि व्रतानि भवन्ति नासस्ययतः प्रतिज्ञामपि कुर्यात् प्रतिज्ञालोपे च सति कितनामवशिष्टम् ? Jain Education International "अथवा त एवं नारीसंयोगा: ५. (क) चूणि, पृ० १०० : ऊर्ध्वमधस्तिर्यगिति क्षेत्रप्राणातिपातो गृहीतः । जे केई तस्थावरा इति द्रव्यप्राणातिपातः सर्वत्रेति प्राणाति पातभावश्च सर्वावस्थासु । (ख) वृति, पत्र १०१ । ६. चूर्ण, पृ० १०० : सर्वत्रेति प्राणातिपातभावश्च सर्वावस्थासु । ७. वृत्ति, पत्र १०१ सर्वत्र काले सर्वास्ववस्थासु । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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