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________________ सूपगडो १ १६६ अध्ययन ३ : टिप्पण ६१ कुछ इनको विक्रम की तीसरी शताब्दी के मानते हैं और कुछ इनको महाभारत युद्ध काल से भी अधिक प्राचीन मानते हैं ।' ६. द्वीपायन -ये महावीर के तीर्थकाल में होनेवाले प्रत्येक बुद्ध थे । ऋषिभाषित के चालीसवें अध्ययन में इनके वचन गाथाओं में संकलित हैं । महाभारत के अनुसार यह माना गया है कि महर्षि पराशर के द्वारा सत्यवती के गर्भ से उत्पन्न मुनिवर वेदव्यास यमुना के द्वीप में छोड़ दिए गए, इसलिए इनका नाम द्वैपायन ( द्वीपायन) पड़ा । * ७. पाराशर ऋषिभाषित में इनका नामोल्लेख प्राप्त नहीं है। महाभारत में पाराशर्य और पराशर नाम के ऋषियों का वर्णन प्राप्त है ।" औपपातिक सूत्र में आठ ब्राह्मण परिव्राजकों और आठ क्षत्रिय परिव्राजकों का उल्लेख मिलता है १. कण्डू २. करकण्ट ३. अंबड ४. पराशर ५. कृष्ण ६. द्वीपायन ७ देवगुप्त और 5. नारद- ये आठ ब्राह्मण परिव्राजक हैं । १. शीलकी २. मसिहार ३ नग्नजित् ४. भग्नजित ५. विदेह ६. राजा ७. राम और ८. बल-ये आठ क्षत्रिय परिव्राजक हैं । वहां इनकी उपश्चर्या का विस्तार से निरूपण है । इन परिव्राजकों को सांख्य, योगी, कापिल, भार्गव, हंस, परमहंस, बहुउदक, कुलीव्रत और कृष्ण परिव्राजक - इन संप्रदायों के अन्तर्गत माना गया है । इनमें पराशर, द्वीपायन, विदेह - ये तीन नाम प्रस्तुत चर्चा से सम्बद्ध हैं। राम रामपुत्र का संक्षिप्त रूप हो सकता है । चूर्णिकार ने प्रस्तुत श्लोकों की चूर्णि में सबको राजर्षि माना है । किन्तु औपपातिक सूत्र के संदर्भ में यह मीमांसनीय है । पराशर और द्वीपायन -- ये ब्राह्मण ऋषि ही प्रतीत होते हैं । चूर्णिकार ने बताया है कि 'ये सब प्रत्येक बुद्ध वनवास में रहते थे और बीज तथा हरित का भोजन करते थे । वहां रहते हुए उन्हें विशिष्टि प्रकार के ज्ञान प्राप्त हुए ।' उस समय के लोग इन ऋषियों की ज्ञानोपलब्धि की तुलना चक्रवर्ती भरत को आदर्शगृह में उत्पन्न ज्ञानोपलब्धि से करते थे । " चूर्णिकार ने इस तर्क के समाधान में लिखा है- भरत चक्रवर्ती को गृहस्थावस्था में ज्ञान तभी उत्पन्न हुआ था जब वे भावसाधु बन गए थे तथा उनके चार घात्यकर्म क्षीण हो गए थे। प्रश्नकार यह नहीं जानते कि किस अवस्था में विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न होता है ? मुक्ति किस संहनन में होती है ? इसलिए वे यह कह देते हैं कि ये ऋषि कंद-मूल आदि खाते हुए तथा अग्नि का समारंभ करते हुए सिद्ध हुए हैं । १. सांख्यदर्शन का इतिहास, उदयवीरशास्त्रीकृत, पृ० ५०५ । २. उत्तरज्भवणाणि, भाग १, पृ० १०७ । ३. इसिमासियाई, चालीसवां अध्ययन, ४. महाभारत आदिपर्व ६३।६६ महाभारत नामानुक्रमणिका पृ० १६२ । ५. महाभारत, सभापर्व ४ । १३; ७|१३; आदिपर्व १७७११ । ६. औपपातिक, सूत्र ε६-११४ । ७. चूर्णि, पृ० ६५ : राजानो भूत्वा बनवासं गता: पच्छा णिग्वाणं गताः । ८०१६ एस वा वणवासे चेय वसंताणं बोयाणि हरिताणि य मुंजंताणं ज्ञानान्युत्पन्वानि यथा भरतस्य आहे पाणमुपणं । दीवायणेण अरहता इसिणा बुझतं । 2 चूर्णि पृ० ६६ : तं तु तस्स भावलिगं पडिवण्णस्स खीणचउकम्मस्स गिहवासे उप्पण्णमिति । ते तु कुतित्था ण जाणंति कस्मिन् भावे वर्तमानस्य ज्ञानमुत्पद्यते ? कतरेण वा संघतरेण सिज्झति ? अजानानास्तु ब्रुवते - ते नमी आद्या महर्षयः भोच्या सीतोदगं सिद्धा, भोच्च त्ति भुञ्जाना एव सीतोदगं कन्दमूलाणि च जोइं च समारम्भन्ता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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