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________________ प्र०१: समय : श्लो० ४०-४० सूयगडो १ ४०.जे एयं णाभिजाणंति मिच्छदिट्ठी अणारिया। मिगा वा पासबद्धा ते घायमेसंतऽणंतसो ।१३। ये एन नाभिजानन्ति, मिथ्यादृष्टयः अनार्याः । मृगा इव पाशबद्धास्ते, घात एष्यन्ति अनन्तश: ।। ४०. जो मिथ्यादृष्टि अनार्य इस (अकर्माश होने के उपाय) को नहीं जानते वे पाश से बद्ध मृग की भांति अनन्त बार मृत्यु को प्राप्त होते हैं।" ४१. माहणा समणा एगे सव्वे गाणं सयं वए। सबलोगे वि जे पाणा ण ते जाणंति किंचणं ।१४। ब्राह्मणा: श्रमणा एके, सर्वे ज्ञानं स्वकं वदेयु: । सर्वलोकेऽपि ये प्राणाः, न ते जानन्ति किञ्चन ।। ४१. कुछ ब्राह्मण और श्रमण-वे सब अपने-अपने ज्ञान की सचाई को स्थापित करते हुए कहते हैं'समूचे लोक में (हमारे मत से भिन्न) जो मनुष्य हैं वे कुछ भी नहीं जानते। ४२. जैसे म्लेच्छ अम्लेच्छ के कथन का दोहराता है, उसके कथन के अभिप्राय को नहीं जानता, किन्तु कथन का पुन: कथन कर देता है। ४२. मिलक्खू अमिलक्खुस्स जहा वुताणुभासए। ण हेउं से वियाणाइ भासियं तऽणुभासए।१५। ४३. एवमण्णाणिया गाणं वयं वि सयं सयं । णिच्छयत्यं ण जाणंति मिलक्खु व्व अबोहिया।६। ४४. अण्णाणियाण वोमंसा अण्णाण ण णियच्छइ। अप्पणो य परं णालं कतो अण्णाणुसासिउं? ॥१७॥ म्लेच्छः अम्लेच्छस्य, यथा उक्तं अनुभाषते । न हेतुं स विजानाति, भाषितं तदनुभाषते ।। एवं अज्ञानिका ज्ञानं, वदन्तोऽपि स्वकं स्वकम् । निश्चयार्थं न जानन्ति, म्लेच्छ इव अबोधिकाः ।। ४३. इसी प्रकार अज्ञानी (पूर्णज्ञान से शून्य)" अपने अपने ज्ञान को प्रमाण मानते हुए भी निश्चय-अर्थ (सत्य) को नहीं जानते, म्लेच्छ की भांति अज्ञानी होने के कारण उसका हार्द नहीं समझ पाते । अज्ञानिकानां विमर्श:, अज्ञाने न नियच्छति । आत्मनश्च परं नालं, कुत: अन्यान् अनुशासितुम् ॥ ४४. अज्ञानिकों का उक्त विमर्श५ अज्ञान के विषय में निश्चय नहीं करा सकता। (संदिग्ध मतिवाले) अज्ञानवादी अपने आपको भी जब अज्ञानवाद का अनुशासन नहीं दे सकते तब दूसरों को उसका अनुशासन कैसे दे सकते है ? बने मूढो यथा जन्तु:, मूढनेत्रनुगामिकः । द्वावपि एतौ अकोविदौ, तीव्र स्रोतो नियच्छतः ।। ४५. जैसे वन में दिग्मूढ बना हुआ मनुष्य दिग्मूढ नेता (पथ-दर्शक) का अनुगमन करता है तो वे दोनों मार्ग को नहीं जानते हुए घोर जंगल में चले जाते हैं। ४६, जैसे एक अंधा दूसरे अंधे को मार्ग में ले जाता हुआ (जहां पहुंचना है वहां से) दूर मार्ग में चला जाता है अथवा उत्सव में चला जाता है अथवा किसी दुसरे मार्ग में चला जाता है। ४५. वणे मूढे जहा जंतू मुढणेयाणुगामिए । दो वि एए अकोविया तिव्वं सोयं णियच्छई।१८। ४६. अंधो अं पहं णेतो दूरमद्धाण गच्छई। आवज्जे उपहं जंतू अदुवा पंथाणुगामिए।१६। ४७. एवमेगेणियागट्टी धम्ममाराहगा वयं । अदुवा अहम्नमावज्जे ण ते सव्वज्जुयं वए।२०। ४८. एवमगे वियकाहि णो अण्णं पज्जुवासिया। अप्पणो य वियकाहि अयमंजू हि दुम्मई।२१॥ अन्धो अन्धं पथं नयन, दूरमध्वानं गच्छति । आपद्यते उत्पथं जन्तु:, अथवा पथानुगामिकः ।। एवमेके नियागार्थिनः, धर्माराधकाः वयम । अथवा अधर्ममापोरन, न तं सर्वर्जुकं व्रजेयुः ।। वितः, नो अन्यं पर्युपासोनाः । आत्मनश्च वितः, अयं ऋजुहि दुर्मतयः ।। ४७. इसी प्रकार कुछ मोक्षार्थी' कहते हैं-'हम धर्म के आराधक हैं।' किन्तु (वे धर्म के लिए प्रवजित होकर भी) अधर्म के मार्ग पर चलते हैं। वे सबसे सीधे मार्ग (संयम) पर" नहीं चलते। एवमेके ४८. कुछ अज्ञानवादी" अपने वितर्कों के गर्व से किसी दुसरे (विशिष्ट ज्ञानी)" की पर्युपासना नहीं करते । वे आने वितकों के द्वारा" यह कहते हैं कि हमारा यह मार्ग ही ऋजु" है, शेष सब दुर्मति हैं -उत्सथगामी हैं। Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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