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सूयगडो १
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अध्ययन ११: टिप्पण ३०-३४
माना गया है।' अर्हत की दृष्टि में वेदना के अन्य सब उपचार अस्थायी हैं । उसका स्थायी उपचार निर्वाण है। इसकी पुष्टि वीरस्तुति के उस सूक्त से होती है 'निर्वाणवादियों में ज्ञातपुत्र श्रेष्ठ हैं।' ३०. जैसे नक्षत्रों में चन्द्रमा (णक्खत्ताण व चंवमा)
___ग्रह, नक्षत्र और ताराओं की कान्ति, सौम्यभाव, प्रमाण और प्रकाश की दृष्टि से चंद्रमा उनसे प्रधान होता है। इसी प्रकार सांसारिक सुखों से निर्वाण सुख परम है, अधिक है।' ३१. संधान करे (संधए)
संधान दो प्रकार का होता है-छिन्न-संधान और अछिन्न-संधान । जो बीच में टूट जाता है वह छिन्न-संधान होता है। चूर्णिकार ने बतलाया है कि साधक निर्वाण के मार्ग को स्वीकार कर अछिन्न-संधान के द्वारा उसका संधान करे।'
श्लोक २३ :
३२. कल्याणकारी (साधुतं)
मूल शब्द 'साधुकं' है। तकार की अनुश्र ति के अनुसार 'क' के स्थान पर 'त' हुआ है।
इसका अर्थ है-कल्याणकारी। ३३. द्वीप (या दीप) का (दीवं)
इसके दो अर्थ हैं- द्वीप और दीप । यहां द्वीप का अर्थ ही विवक्षित है।'
जैसे समुद्र में गिरा हुआ प्राणी लहरों के थपेड़ों से आकुल-व्याकुल होकर मरणासन्न हो जाता है, उसको यदि कहीं द्वीप प्राप्त हो जाता है तो वह अपने प्राण बचा लेता है। उसी प्रकार भगवान् का धर्म संसारी प्राणियों के लिए द्वीप के समान है।
स्रोत में बहने वाले प्राणियों के लिए द्वीप जैसे प्रतिष्ठा होता है, वैसे ही यह मार्ग संसार सागर में बहने वाले प्राणियों के लिए प्रतिष्ठा होता है। उत्तराध्ययन में धर्म को द्वीप, प्रतिष्ठा, गति और शरण कहा गया है।'
श्लोक २४:
३४. (आयगुत्ते सया दंते ....... छिण्णसोए णिरासवे)
आत्मगुप्त का अर्थ है-- इन्द्रिय और मन का प्रत्याहार करने वाला । दांत के दो अर्थ हैं-इन्द्रिय और मन को वश में करने वाला तथा धर्मध्यान का ध्याता । स्रोत का अर्थ है-हिंसा आदि आश्रव। जो व्यक्ति इनका छेदन कर देता है वह छिन्नस्रोत होता
१. चूणि, पृ० २०० : जेव्वाणं परमं जेसि ते इमे णेन्वाणपरमा एते बुद्धा अरहन्तः, तच्छिष्या बुद्धबोधिताः, परमं निर्वाणमित्यतोऽनन्य
तुल्यम्, नास्य सांसारिकानि तानि तानि वेदनाप्रतीकाराणि निर्वाणानि अनन्तभागेऽपि तिष्ठन्तीति । २. सूयगडो, १।६।२१ : णिव्वाणवादीणिह णायपुत्ते । ३. चूणि, पृ० २०० : न क्षयं यान्तीति नक्षत्राणि, तेभ्यः कान्त्या सौम्यत्वेन प्रमाणेन प्रकाशेन च परमश्चन्द्रमाः नक्षत्र-ग्रह-तारकाभ्यः, ___ एवं संसारसुखेभ्योऽधिकं निर्वाणसुखमिति । ४. चूणि, पृ० २०० : मोक्षमग्गपडिवण्णे उत्तरगुणेहि वड्डमाणेहि अच्छिण्णसंधणाए णेव्वाणं संधेज्जा। ५. चूणि, पृ० २०० : दीपयतीति दीपः, द्विधा पिबति वा द्वीपः, स तु आश्वासे प्रकाशे च, इहाऽऽश्वासद्वीपोऽधिकृतः । ६. वृत्ति, पत्र २०६। ७. उत्तराध्ययन २३१६८: जरामरणवेगेणं, बुज्झमाणाण पाणिणं ।
धम्मो दीवो पइट्ठा य, गई सरणमुत्तमं ॥
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