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________________ सूयगडो १ २५. पूतिकर्म (अन्न पान) का ( पूतिकम् ) २६. संयमी का (सीमतो ) ४७६ श्लोक १५: इसका अर्थ है --आधाकर्मी आहार से मिश्रित भोजन यह उद्गम का तीसरा दोष है । देखें इसलिये ५/५५ का टिप्पण, पृ० २३६ । देखें - ८ / २० का टिप्पण | २७. सर्वथा (सव्वसो) चूर्णिकार ने इसका अर्थ-प्राण निकलते हों तो भी किया है । वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है- सभी प्रकार का (आहार, उपकरण आदि) ।' अध्ययन ११ टिप्पण २५-२६ श्लोक १६-२१ : २८. श्लोक १६-२१: प्रश्न करने वाला स्वतंत्र होता है। वह अपनी इच्छा के अनुसार प्रश्न पूछ सकता है, किन्तु उत्तर देने वाले को बुद्धि और विवेक- दोनों का संतुलन रखना होता है। कोरा बौद्धिक उत्तर हिंसा का निमित्त बन सकता है और अन्य समस्याएं भी उत्पन्न कर सकता है, इसलिए उत्तरदाता को विवेक से काम लेना होता है । अनेक प्रकार के लोग होते हैं। कुछ श्रद्धालु होते हैं, कुछ श्रद्धालु नहीं होते । कुछ श्रद्धालु लोग दानरुचि वाले होते हैं। वे दान देने में श्रद्धा रखते हैं । वे साधु से पूछते हैं - हम लोग ब्राह्मण या भिक्षु का तर्पण करते हैं। उसमें धर्म होता है या पुण्य होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में मुनि 'हां' या 'ना' न कहे - यह सूत्रकार का निर्देश है । इसका कारण सूत्र में स्पष्ट है । चूर्णिकार ने - 'पुण्य होता है, ऐसा न कहे- इसके कुछ कारण बतलाए हैं । उनके अनुसार ऐसा कहने से मिथ्यात्व का स्थिरीकरण होता है । उस आहार से पुष्ट होकर भिक्षुक असंयम करते हैं, उसका अनुमोदन होता है । * Jain Education International 'पुण्य नहीं होता' - ऐसा इसलिए नहीं कहना चाहिए कि जिन्हें दिया जा रहा है उसके अन्तराय होता है । चूर्णिकार ने बताया है कि मुनि ऐसे प्रसंग में मौन रहे। यदि प्रश्नकर्त्ता बहुत आग्रह करे तो बताए कि हम आधाकर्म आदि बयालीस दोष रहित पिंड को प्रशस्त मानते हैं । * इसका तात्पर्य यह है कि जहां वर्तमान में दान की प्रवृत्तियां चल रही हों, उन्हें लक्षित कर धर्म या पुण्य होता है या नहीं होता, इस प्रकार का प्रश्न करे तब मुनि को मौन रहना चाहिए। यह उसका वाणी का विवेक है । श्लोक २२ : २४. तीर्थकरों के निर्वाण परम होता है (णियाण परमा बुढा) चूर्णिकार ने बुद्ध का अर्थ अर्हत् किया है। उनके शिष्य बुद्ध-बोधित कहलाते हैं। वे निर्वाण को परम या प्रधान मानते हैं । वेदना को शान्त करने के जितने सांसारिक प्रतिकार हैं वे निर्वाण के अनन्तवें भाग तक भी नहीं पहुंच पाते, इसलिए निर्वाण को परम १. चूणि, पृ० १६९ : सर्वश इति यद्यपि प्राणात्ययः स्यात् । २. वृत्ति, पत्र २०४ : सर्वशः सर्वप्रकारम् । ३. चूर्णि, पृ० १९६ : अस्थि पुण्णं ति णो वदे, मिच्छत्तथिरीकरणं, जं च तेणाऽऽहारेण परिबूढा करेस्संति असंयमं, अप्पाणं परं च बहूहि भावेति तदनुज्ञातं भवति । ४. पुर्णि, पृ० १११ तुतिणीहि अति निबंध वाचोति अहं आधाकम्मा दिवातालीस दोसपरिशुद्ध पडो पसायो । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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