SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 507
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूयगडो १ ४७० अध्ययन ११ : टिप्पण -१० गया है। चूर्णिकार की व्याख्या के अनुसार उनका अभिमत पाठ इस प्रकार होगा-'देवा तिरिय माणुसा'। इसकी व्याख्या में चूणिकार कहते हैं-चार प्रकार के देव तथा मनुष्य प्रश्न पूछने में सक्षम होते हैं। उत्तरलब्धि (अजित शक्ति) की अपेक्षा से तिर्यञ्च भी जिज्ञासा कर सकते हैं, वाणी से पूछ सकते हैं।' श्लोक ४: ८. मार्गसार (मग्गसार) इसका अर्थ है-सभी मार्गों में सारभूत मार्ग । सुधर्मा जंबू से कहते हैं कि भगवान् महावीर के मार्ग का जो सार-हार्द है वह मैं तुम्हे बताऊंगा । भगवान् का मार्ग षड्जीवनिकाय का प्रतिपादन करता है और उसकी अहिंसा का उपदेश देता है। किसी भी जीव को न मारना यही मार्गसार है, भगवान् के मार्ग का हार्द है।' चूर्णिकार ने इसका अर्थ-मार्गों का सार अथवा मार्ग ही है सार जिसका-ऐसा किया है।' श्लोक ५: ६. काश्यप (भगवान् महावीर) के द्वारा (कासवेण) देखें-दसवेआलियं ४।सूत्र १ का टिप्पण । १०. जो क्रम से प्राप्त होता है (अणुपुष्वेण) इसका आशय है कि भगवान् महावीर द्वारा कथित मार्ग क्रमशः प्राप्त होता है। प्राप्ति-क्रम के निर्देश में चूणिकार और वृत्तिकार ने अनेक श्लोकों को उद्धृत किया है।' 'माणुसखेत्तजाईकुलरूवारोग्गमाउयं बुद्धी। सवणोग्गहसद्धा संजमो य लोगंमि दुल्लहाई ॥ -मनुष्य जन्म, आर्यक्षेत्र, उत्तमजाति, उत्तमकुल, सुरूपता, स्वास्थ्य, दीर्घ-आयुष्य, सद्बुद्धि, धर्मश्र ति, धारणा, श्रद्धा और चारित्र-ये क्रमशः प्राप्त होते हैं। चत्तारि परमंगाणि दुल्लहाणीह जंतुणो। माणुसतं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं ।' चार बातें दुर्लभ हैं-मनुष्यभव, धर्मश्रुति, श्रद्धा और धर्माचरण । १. वृत्ति, पत्र २०१ : 'देवा'-चतुनिकायाः तथा मनुष्याः-प्रतीताः, बाहुल्येन तयोरेव प्रश्नसद्भावात्तदुपादानम् । २. चूणि, पृ० १६५ : देवाश्चतुष्प्रकाराः एते पृच्छाक्षमा भवन्ति, तिरिया मणुस्सा (? मणुस्सा तिरिया वा), उत्तरगुणद्धि वा पडुच्च ___तियं (? तिरियं) अपि कश्चिद् गिरा वत्ति । ३. वृत्ति, पत्र २०१ : एवं पृष्टं सुधर्मस्वाम्याह..........''षड्जीवनिकायप्रतिपादनगर्भ तद्रक्षाप्रवणं मार्ग 'पडिसाहिज्जे' त्ति-प्रति ___ कथयेत्, 'मार्गसारम्'-मार्गपरमार्थम् । ४. चूणि, पृ० १९६ : मार्गाणां सारः मार्ग एव वा सारः मार्गसारः । ५. (क) चूर्णि, पृ० १६६ । (ख) वृत्ति, पत्र २०१। ६. आवश्यक नियुक्ति, गाथा ८३१ । ७. उत्तराध्ययन, ३॥१॥ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy