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सूयगडो १
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अध्ययन ११: टिप्पण ४-७ ४. ऋजु मार्ग को (मग्गं उज्जु)
वृत्तिकार ने ऋजुमार्ग के अनेक अर्थ किए हैं-' १. मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रशस्त भावमार्ग । २. वस्तु का यथार्थ स्वरूप प्रतिपादन करने के कारण मोक्ष-प्राप्ति का अवक्र मार्ग-सरल मार्ग । ३. स्याद्वाद के आधार पर कथन करने के कारण सरल मार्ग ।
४. ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप रूप मार्ग । ५. दुस्तर प्रवाह को तर जाता है (ओहं तरति दुत्तरं)
ओघ का अर्थ है-प्रवाह, संसार रूपी समुद्र ।
वृत्तिकार का अभिमत है कि संसार समुद्र को तर जाना कठिन नहीं है किन्तु तरने की समग्र सामग्री को प्राप्त करना कठिन है। उस सामग्री के उल्लेख में उन्होंने एक गाथा उद्धृत की है। उसका तात्पर्य है कि लोक में मनुष्य क्षेत्र, उत्तम जाति आदि की प्राप्ति दुर्लभ होती है।
चूर्णिकार ने ओघ के दो प्रकार किए हैं१. द्रव्य ओघ-समुद्र । २. भाव ओघ-संसार ।'
श्लोक २: ६. शुद्ध (सुद्धं)
चूर्णिकार ने शुद्ध के दो अर्थ किए हैं१. अकेला-वह (मार्ग) जो किसी के द्वारा उपहत नहीं है। २. पूर्वापर को खंडित करने वाले या बाधित करने वाले दोषों से रहित । वृत्तिकार ने मोक्षमार्ग को शुद्ध मानने के तीन कारण प्रस्तुत किए हैं१. वह निर्दोष है। २. वह परस्पर विरुद्ध कथनों से रहित है। ३. वह पापकारी अनुष्ठानों का कथन नहीं करता।
श्लोक ३:
७. देव या मनुष्य (देवा अदुव माणुसा)
प्रायः देवता और मनुष्य ही जिज्ञासा करने या प्रश्न पूछने में समर्थ होते हैं, अत: यहां इन दो का ही ग्रहण किया
१वृत्ति, पत्र २००, २०१ : यं प्रशस्तं भावमार्ग मोक्षगमनं प्रति 'ऋजु'–प्रगुणं यथावस्थितपदार्थस्वरूपनिरूपणद्वारेणावळं सामान्य
विशेषनित्यानित्यादिस्याद्वादसमाश्रयणात् । २. वृत्ति, पत्र २०१ : 'ओघ' मिति भवौघ-संसारसमुद्रं तरत्यत्यन्तदुस्तर, तदुत्तरणसामग्र्या एव दुष्प्रापत्वात् । ३. वृत्ति, पत्र २०१ : में उद्धृत आवश्यकनियुक्ति गाथा ८३१ । ४. चूर्णि, पृ० १६५ : ओधो द्रव्योधः समुद्रः भावे संसारौघं तरति । ५. चूणि, पृ० १९५: शुद्ध इति एक एव, निरुपहतत्वाच्चवम्, अथवा पूर्वापरव्याहतबाध्यदोषापगमात् शुद्धः । ६. वृत्ति, पत्र २०१ : शुद्धः अवदातो निर्दोषः पूर्वापरव्याहतिदोषापगमात् सावद्यानुष्ठानोपदेशाभावाद वा ।
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