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________________ सूयगडो १ ४७१ अनन्तानुबंधी काय के उदय से सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता । 33 33 " 11 अप्रत्याख्यान देशविरति होती । प्रत्याख्यान संज्वलन 23 १२. बीज पर्यन्त (सबीयगा ) 23 " चारित्र लाभ नहीं होता । 13 यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति नहीं होती । ११. इससे पूर्व (इओ पुव्वं ) चूर्णिकार ने इसका अर्थ 'इस तीर्थ से पहले या आज से पूर्व किया है।' वृत्तिकार का अर्थ भिन्न है । उनके अनुसार इसका अर्थ है सन्मार्ग मिल जाने के कारण प्रारम्भ से ही । " श्लोक ७: इसका अर्थ है-बीज पर्यन्त दशकालिक (४) मूत्र ) में भी यह शब्द प्रयुक्त है। इसके पूर्णिकार अगस्त्यसिह स्थविर तथा जिनदास महत्तर ने इस शब्द के द्वारा वनस्पति के दश भेदों का ग्रहण किया है।' वनस्पति के दश भेद ये हैं-मूल, कंद, स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज । मूल की अन्तिम परिणति बीज में होती है । प्रस्तुत श्लोक के 'सबीयगा' शब्द की किया है।" टीका करते हुए टीकाकार शीलांकसूरी ने इस शब्द के द्वारा केवल अनाज का ग्रहण Jain Education International १३. पृथक् सत्त्व (स्वतंत्र अस्तित्व) वाले ( पुढो सत्ता ) जिनमें पृथक्-पृथक् सत्त्व -- आत्मा हो उन्हें पृथक्सत्त्व कहा जाता है। प्रत्येक आत्मा का अस्तित्व स्वतन्त्र होता है । कोई किसी से उत्पन्न नहीं होता । पृथक्सत्त्व के द्वारा इस सत्य की घोषणा की गई है । 'पुढो सत्ता' पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और तृण-वृक्ष आदि सभी का विशेषण है । अध्ययन ११ टिप्पण ११-१३ पूर्णिकार ने इसका अर्थ प्रत्येकशरीरी किया है।' वृत्तिकार ने पूर्ण के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा हैनस्पति के जीव प्रत्येकशरीरी और साधारणशरीरी - दोनों प्रकार के होते हैं । इसलिए साधारणशरीर की दृष्टि से वनस्पति को अपृथक् सत्त्व भी कहा जा सकता है ।" दशवेकालिक की चूर्णि और हारिभद्रीया वृत्ति में पृथक्सत्त्व का अर्थ स्वतन्त्र अस्तित्त्व किया गया है।" वह अर्थ उचित प्रतीत होता है। सत्त्व का अर्थ शरीर नहीं, अस्तित्व या आत्मा है। इसलिए उसका प्रत्येक शरीरी अर्थ प्रकरणानुसारी नहीं लगता । देखें --- दसवेआलियं ४ । सूत्र ४ का टिप्पण | १. आवश्यक निर्युक्ति, गाथा १०८ ११० । २. चूर्णि, पृ० १९६ : इत इति इतस्तीर्थादर्थं (? र्थात् पूर्व) अद्यतनाद्वा दिवसादिति । ३.वृत्ति २०२ 'इ' इति सम्मानपादानात् पूर्वम्' आदावेवाि ४. (क) शकालिक अगस्त्यपूर्ण १०७२, (ख) वही, जिनवासपूर्ण पृ० १३० १६० ५. वृत्ति पत्र २०२ सह बीजे: शालियोधूमादिभिर्तत इति बीजकाः । ६. णि, पृ० १६६ : पृथक् पृथग् इति प्रत्येकशरीरश्वात । ७. वृत्ति पत्र २०२ वक्ष्यमाणवनस्पतेस्तु साधारणशरीरखेनावृपार्थस्य दर्शनाय पुनः पृथकत्वमिति । 4. (क) शर्वकालिक ४ सूत्र ४, जिनदास पूणि, पृ० १३६ बुझे सत्ता नाम विक्मोदए सिलेसे बढ़िया बट्टी हिहिं चवत्थियत्ति वृत्तं भवइ । (ख) हारिभद्रीया वृत्ति पत्र १३८ : अंगुला संख्येयमागमात्रावगाह्नया पारमार्थिक्याऽनेकजीवसमाश्रितेति भावः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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