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________________ सूयगडो १ ४३७ अध्ययन १० : टिप्पण १७-२० चूर्णिकार ने पांचों विषयों को विस्तार से समझाया है शब्द-स्त्रियों के कलात्मक वाक्य । रूप-रमणीय गति, अवलोकन आदि । रस-चुम्बन आदि। गंध-जहां रस है वहां गंध अवश्यंभावी है। स्पर्श-संबाध न, स्तन, उरु, वदन आदि का संसर्ग ।' १७. सर्वथा बन्धन मुक्त (सव्वओ विप्पमुके) इसका अर्थ है-सर्वथा बन्धनमुक्त, बाह्य और आभ्यन्तर आसक्तियों से मुक्त, निःसंग, निष्कञ्चन ।' चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-समस्त असमाधियों से मुक्त, सर्वबन्धनों से मुक्त ।' १८. पृथक्-पृथक् रूप से (पुढो) ___ इसके दो अर्थ हैं ---पृथक्-पृथक् अथवा बहुत ।' १९. पीडित (आवट्टती) चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है-आवर्त में फंस जाता है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ-पीड़ित होता है, दु:खभाक् होता है-किया है। श्लोक ६: २०. (आदीणवित्तो ....... "एगंतसमाहिमाहु) दीनता प्रदर्शित कर जीविका चलाने वाला भी पाप कर लेता है । वह भोजन को प्राप्त नहीं होता तब उसे असमाधि हो जाती है। इस स्थिति को ध्यान में रखकर एकान्त समाधि का निरूपण किया गया है। वस्तु के लाभ से होने वाली समाधि अनैकान्तिक होती है । ज्ञान आदि भाव-समाधि एकान्ततः सुख उत्पन्न करती है।' चूर्णिकार ने प्रस्तुत प्रसंग में उत्तराध्ययन ५।२२ का श्लोक उद्धृत करते हुए कथा की ओर संकेत किया है। वह इस प्रकार है१. चूणि, पृ० १८६ : सर्वेन्द्रियनिवृतो जितेन्द्रिय इत्यर्थः । प्रजायन्तः इति प्रजाः स्त्रियः, तासु हि पंचलक्खणा विषया विद्यन्ते । शब्दा स्तावत्-कलानि वाक्यानि विलासिनीनाम्, रूपेऽपि-गता निशा साच्यवलोकितानि, स्मितानि वाक्यानि च सुन्दरीणाम् । रसा अपि चुम्बनादयः यत्र रसस्तत्र गन्धोऽपि विद्यते स्पर्शाः सम्बाधन-कुचोर-वदनसंसर्गादयः । २. वृत्ति, पत्र १६० । सबाह्याभ्यन्तरात् सङ्गाद्विशेषेण प्रमुक्तो विप्रमुक्तो निःसङ्गो मुनिः निष्किञ्चनश्चेत्यर्थः । ३. चूणि, पृ० १८६ : सर्वासमाधिविप्रमुक्तः सर्वबन्धनविप्रमुक्तः । ४. चूणि, पृ० १८६ : पुढो णाम पृथक् पृथक् अथवा पुढो ति बहुगे। ५. चूणि, पृ० १८६ : ये प्रकुर्वन्ते हिंसादीनि एतेष्वेव आवय॑न्ते । ६ वृत्ति, पत्र १९० : आवय॑ते-पोड्यते दुःखभाग्भवतीति । ७. (क) चूणि, पृ० १८७ : यावद् दैन्यं तावद् दीनः । कोऽर्थः ? दीण-किवण-वणीमगा वि पावं करेंति........."बीणतणेण मंज तीति आदीणभोजी, सो पुण कताइ अलममाणो असमाधिपत्तो अधेसत्तमाए वि उववज्जेज्जा... . . . . . . ' द्रव्यसमाधयो हि स्पर्शादिसुखोत्पादकाः अनेकान्तिकाश्च भवन्ति । कथम् ? अन्यथामेवनादसमाधि कुर्वते । उक्तं हि-'ते चेव होंति दुक्खा पुणो वि कालंतरवसेण ।' ज्ञानाद्यास्तु भावसमाधयः एकान्तेनैव सुखमुत्पादयन्तीह परत्र च एवं मत्वा सम्पूर्ण समाधिमाहुस्तीर्थकराः। (ख) वृत्ति, पत्र १९१। ते । उक्तं हि-'ते चेव होति समाधयो हि स्पर्शादि कान्तेनैव सुखमुत्पादयन्तीह पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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