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________________ सूयगडो १ ४३६ अध्ययन १०: टिप्पण १३-१६ करता है और न दूसरों से हिंसा करवाता है । वह सबके प्रति समान व्यवहार करता है। मृषावाद के विषय में भी वह सोचता है- जैसे मुझे कोई गाली देता है या मेरे पर झूठा आरोप लगाता है तो मुझे दुःख होता है, वैसे ही दूसरों को गाली देने और उन पर झूठा आरोप लगाने से दुःख होता है। इसी प्रकार दूसरे सारे आश्रवद्वारों के विषय में वह आत्मतुला के आधार पर सोचता है और उसी प्रकार आचरण करता है, यही उसका आत्मतुल्य आचरण है।' १३. इस जीवन का अर्थी (इह जीवियट्रो) चूर्णिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं१. साधक इस जीवन का अर्थी होकर पदार्थों का अर्जन न करे । २. अन्न, पान, वस्त्र, शयन, पूजा, सत्कार आदि के लिए पदार्थों का अर्जन न करे। दृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ यह है' साधक असंयम जीवन का अर्थी होकर, मैं लंबे समय तक सुखपूर्वक जीवित रहूंगा-ऐसा सोचकर कर्म-बंध न करे। १४. अर्जन (आय) चूणि ने इसका अर्थ-पदार्थों का अर्जन' और वृत्तिकार ने कर्मों के आश्रवद्वार रूपी आय-किया है। १५. संचय न करे (चयं ण कुज्जा ) मुनि के लिए धर्मोपकरण के अतिरिक्त सारे पदार्थ संचय की कोटि में आते हैं । मुनि आहार, उपकरण आदि वस्तुओं का संचय न करे । वह सोना, चांदी, धन, धान्य का भी संचय न करे कि वे भविष्य में जीवन-यापन के लिए कारगर होंगे। श्लोक ४: १६. सभी इन्द्रियों से संयत (सविदियाभिणिन्वुडे पयासु) प्रजा का अर्थ है-स्त्री। मुनि स्त्रियों के प्रति सभी इन्द्रियों से संयत रहे। पांचो इन्द्रियों के पांचो विषय स्त्रियों के प्रति होते हैं । वृत्तिकार ने यहां एक श्लोक उद्धृत किया है कलानि वाक्यानि विलासिनीनां, गतानि रम्याण्यवलोकितानि । रताणि चित्राणि च सुन्दरीणां, रसोपि गन्धोऽपि च चुम्बनानि ॥' १. (क) चूणि, पृ० १८६ : आयतुले पयासु ति, प्रजायन्त इति प्रजाः पृथिव्यादयः तासु यथाऽत्मनि तथा प्रयतितव्यम्, न हिसितव्या ___इत्यर्थः, आत्मतुल्या इति 'जध मम ण पियं दुक्खं' एवं मुसावादे वि जधा मम अन्माइक्खिज्जतस्स अप्पियं एवमन्यस्यापि । एवमन्येष्वपि आश्रवद्वारेषु आत्मतुल्यत्वं विभाषितव्यम् । (ख) वृत्ति, पत्र १८६, १९० । २. चूणि, पृ० १८६ : तं आईन इहलोकजीवितस्यार्थे कुर्यात्, अण्ण-पाण-वत्थ-सयण-पूया-सबकारहेतुं वा । ३. वृत्ति, पत्र १९० : इहासंयमजीवितार्थी प्रभूतं कालं सुखेन जीविष्यामीत्येतदध्यवसायी वा-- कर्माश्रवलक्षणं न कुर्यात् । ४. चूणि, पृ० १०६ : आयो नाम आगमः। ५. वृत्ति, पत्र १९०: आय-कर्माधवलक्षणम् । ६. (क) चूणि पृ० १८६ : चयं ण कुज्जा, चयं णाम सन्निचयं न कुर्याद्, अन्यत्र धर्मोपकरणं शेष आहारादिवस्तुसञ्चयः सर्वः प्रति षिध्यते, हिरण्य-धान्यादिसञ्चयोऽपि प्रतिषिध्यते येनानागते काले जीविका त्यादिति, तं प्रतीत्य भाव सञ्चयो भवति, कर्मसञ्चय इत्यर्थः। (ख) वृत्ति, पत्र १९० : चयम्'-उपचयमाहारोपकरणावर्धनधान्यद्विपदचतुष्पदादेर्वा परिग्रहलक्षणं संचयम् । ७. वृत्ति पत्र १९० : सर्वाणि च तानि इन्द्रियाणि च स्पर्शनादीनि तैरभिनिर्वृतः- संवृतेन्द्रियो जितेन्द्रिय इत्यर्थः, क्व?-'प्रजासु' स्त्रीषु, तासु हि पञ्चप्रकारा अपि शब्दादयो विषया विद्यन्ते, तथा चोक्तम्-कलानि वाक्यानि........ .... Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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