SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 529
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६२ प्र०१२: समवसरण : श्लोक ५-१० सूयगडो १ ५. संमिस्समावं सगिरा गिहीते से मुम्मुई होइ अणाणुवाई। इमं दुपक्खं इममेगपक्खं आहंसु छलायतणं च कम्मं ॥ सम्मिश्रभावं स्वगिरा गृहीतः, स 'मुम्मुई' भवति अननवादी। इदं द्विपक्षं इदं एकपक्ष, आहुः षडायतनं च कर्म ।। ५. (शून्यवादी बौद्ध) अस्तित्व या नास्तित्व का स्पष्ट व्याकरण नहीं करते। वे अपनी वाणी से ही निगृहीत हो जाते हैं। प्रश्न करने पर वे मौन रहते हैं(एक या अनेक, अस्ति या नास्ति का) अनुवाद नहीं करते । वे अमुक कर्म को द्विपाक्षिक और अमुक कर्म को एकपाक्षिक तथा उसे छह आयतनों से होने वाला मानते हैं। ६.ते एवमक्खंति अबुज्झमाणा विरूवरूवाणिह अकिरियाता। जमाइइत्ता बहवे मणूसा भमंति संसारमणोवदग्गं ते एवमाख्यान्ति अबुध्यमानाः, विरूपरूपाणि इह अक्रियात्मानः । यमादाय बहवो मनुष्याः , भ्रमन्ति संसारमनवदग्रम् ॥ ६. आत्मा को अक्रिय मानने वाले वे तत्त्व को नहीं जानते हुए नाना प्रकार के सिद्धांत प्रतिपादित करते हैं। उन्हें स्वीकार कर बहुत सारे मनुष्य अपार संसार में भ्रमण करते हैं। ७.णाइच्चो उदेइ ण अत्थमेइ ण चंदिमा वड्ढति हायती वा। सलिला ण संदंति ण चंति वाया वंझे णितिए कसिणे हलोए॥ नादित्यः उदेति नास्तमेति, न चन्द्रमाः वर्धते हीयते वा । सलिलाः न स्यन्दन्ते न वान्ति वाताः, वन्ध्यो नित्यः कृत्स्नो खल लोकः ।।। ७. (पकुधकात्यायन के अनुसार) सूर्य न उगता है और न अस्त होता है। चन्द्रमा न बढ़ता है और न घटता है। नदियां बहती नहीं हैं। पवन चलता नहीं है, क्योंकि यह संपूर्ण लोक वन्ध्य (शून्य) और नित्य (अनिर्मित) है।" ८.जहा हि अन्धे सह जोइणा वि रूवाणि णो पस्सइ होणणेत्ते । संतं पि ते एवमकिरियआता किरियं ण पस्संति विरुद्धपण्णा॥ यथा हि अन्धः सह ज्योतिषाऽपि, रूपाणि नो पश्यति होननेत्रः ।। सतीमपि ते एवमक्रियात्मानः, क्रियां न पश्यन्ति निरुद्धप्रज्ञाः॥ ८. जैसे अंधा मनुष्य नेत्रहीन होने के कारण प्रकाश के होने पर भी रूपों को नहीं देखता, इसी प्रकार अक्रियआत्मवादी निरुद्धप्रज्ञ" (ज्ञानावरण का उदय) होने के कारण विद्यमान क्रिया को भी नहीं देखते। ६.संवच्छरं सुविणं लक्खणं च णिमित्तदेहं च उप्पाइयं च। अलैंगमेयं बहवे अहित्ता लोगंसि जाणंति अणागताई ॥ संवत्सरं स्वप्नं लक्षणं च, निमित्तं देहं च औत्पातिकं च । अष्टांगमेतद् बहवोऽधीत्य, लोके जानन्ति अनागतानि ।। ६. अन्तरिक्ष, स्वप्न, शारीरिक लक्षण, निमित्त (शकुन आदि), देह (तिल आदि) औत्पातिक (उल्कापात, पुच्छल तारा आदि) अष्टांग निमित्तशास्त्र को पढ़कर अनेक पुरुष इस लोक में अनागत तथ्यों को जानते हैं।" १०. कई णिमित्ता तहिया भवंति केसिंचि ते विप्पडिएंति णाणं। ते विज्जभावं अणहिज्जमाणा आहंसु विज्जापलिमोक्खमेव ॥ केचिद् निमित्ताः तथ्या भवन्ति, केषांचिद् ते विपरियन्ति ज्ञानम् । ते विद्याभावं अनधीयमानाः, आहुः विद्यापरिमोक्षमेव ॥ १०. कुछ निमित्त सत्य होते हैं । कुछ पुरुषों का (निमित्त) ज्ञान तथ्य के विपरीत होता है । वे (निमित्त) विद्या के भाव को नहीं पढते, इसलिए (निमित्त) विद्या को छोड़ने की बात करते हैं। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy