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________________ सूयगडो १ ११. से एवमति समेच्च लोयं तहा - तहा समणा माहणा य । सयंकडं णऽण्णकडं च दुक्खं आहंसु विज्जाचरणं पमोक् ॥ १२. ते चक्खु लोगस्सिह णायगा उ मग्गाणुसासंति हियं पयाणं । तहा तहा सासयमा लोए जंसी पया माणव ! संपगाढा ॥ १३. जे रक्खसा जे जमलोइया या जे आसुरा गंधव्वा य काया । आगासगामी व पुढोसिया ते पुणो पुणो विष्परिवासुर्वेति ॥ १४. जमाह ओहं सलिलं अपारगं जाणाहि णं भवगहणं दुमवतं । जंसी विसण्णा विसयंगणाहि दुहतो वि लोयं अणुसंचरंति ॥ १५. कम्मुणा कम्म सति बाला अकम्पुणा कम्म खति धीरा । मेघाविणो लोममया वतीता संतोसिणो णो पकरेति पावं ॥ १६. ते तीत उप्पण्णमणागयाई लोगस्स जाणंति तहागताई। णेतारो अण्णेसि अणण्णणेया बुद्धा ते अंतकडा भवंति ॥ हु १७. ते णेव कुव्वंति ण कारवैति भूतामिसंकाए दुखमाणा । सदा जता विष्पणमंति धीरा विष्णत्ति वीराय भवंति एगे ॥ Jain Education International ४३३ ते एवमाख्यान्ति समेत्य लोक, तथा तथा श्रमणान् ब्राह्मणांश्च । स्वयं कृतं नान्यकृतं च दुःखं आहुः विद्याचरणं , प्रमोक्षम् ॥ प्र १२ समवसरण श्लोक ११-१७ ११. तीर्थंकर लोक का भली-भांति जानकर श्रमणों और ब्राह्मणों को यह यथार्थ बतलाते हैं-दुःख स्वयंकृत है, किसी दूसरे के द्वारा कृत नहीं है। (दुःख की ) मुक्ति विद्या और आचरण के द्वारा " होती है । ते चक्षुः लोकस्य इह नायकास्तु, मार्गमनुशासति हितं प्रजानाम् । तथा तथा शाश्वतमाहूः लोक, यस्मिन् प्रजाः मानव संप्रगाढाः ॥ ये राक्षसाः ये यमलौकिकाः वा, ये आसुराः गन्धर्वाश्च कायाः । आकाशगामिनश्च पृथ्व्युषिताः ते, पुनः पुनः विपर्यासमुपयन्ति ।। यमाहु: ओघं सलिलं अपारगं, जानीहि तद् भवगहनं दुर्मोक्षम् । यस्मिन् विषण्णाः विषयाङ्गनाभिः, द्वाभ्यामपि लोकमनुसंचरन्ति ॥ न कर्मणा कर्म क्षपयन्ति बालाः, अकर्मणा कर्म क्षपयन्ति धीराः । मेधाविनो लोभमवाद् व्यतीताः संतोषिणो तो प्रकुर्वन्ति पापम् ॥ ते अतीत उत्पन्न - अनागतानि, लोकस्य जानन्ति तथागतानि । नेतारोयेषां अनन्यनेयाः, बुद्धाः खलु ते कृतान्ताः भवन्ति ॥ ते नैव कुर्वन्ति न कारयन्ति, भूताभिशंकया जुगुप्तमानाः । सदा यताः विप्रणमन्ति धीराः, विज्ञप्ति - वीराश्च भवन्ति एके ॥ For Private & Personal Use Only १२. ये सीकर लोक के चक्षु" और " हैं। वे जनता के लिए हितकर " मार्ग का अनुशासन करते हैं। उन्होंने वैसेवैसे ( आसक्ति के अनुरूप ) लोक को शाश्वत कहा है ।" हे मानव" ! उसमें यह प्रजा संप्रगाढ - आसक्त" है । १३. जो राक्षस, यमलोक के देव, असुर और गंध निकाय के हैं, जो आकाशगामी (पक्षी आदि) हैं, जो पृथ्वी के आश्रित प्राणी हैं, वे सब बार-बार विपर्यास (जन्म-मरण) को प्राप्त होते हैं ।" १४. जिसे अपार सलिल का प्रवाह कहा है" उसे दुर्मोक्ष" गहन संसार जानो, जिसमें विषय और अंगना " दोनों प्रमादों से प्रमत्त होकर" लोक में अनुसंचरण करते हैं । १५. अज्ञानी मनुष्य कर्म से कर्म को क्षीण नहीं करते। धीर पुरुष अकर्म से कर्म को क्षीण करते हैं। मेघावी लो और मद से अतीत", पाप नहीं करता ।" 1 संतोषी मनुष्य १६. वे तीर्थंकर) लोक के अतीत, वर्तमान और भविष्य को यथार्थ रूप में जानते हैं।" वे दूसरों के नेता हैं।" स्वयंबुद्ध होने के कारण दूसरों के द्वारा संचालित नहीं है।" वे (भव या कर्म का) अन्त करने वाले" होते हैं । १७. जिससे सभी जीव भय खाते हैं उस हिंसा से उद्विग्न होने के कारण " वे स्वयं हिंसा नहीं करते, दूसरों से हिंसा नहीं करवाते वे धीर पुरुष सदा संयमी" और विशिष्ट पराक्रमी " होते हैं, जबकि कुछ पुरुष वाग्वीर ** होते हैं, कर्मवीर नहीं। ४३ www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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