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सूयगड १
अहिमरणं ण करेज्ज पंडिए ।
पंडित वह होता है जो कलह नहीं करता ।
माजी
तहविव बाल
(२०४३)
टूटे हुए जीवन-सूत्र को जोड़ा नहीं जा सकता । फिर भी अज्ञ मनुष्य हिंसा आदि में घृष्ट होता है ।
मा पेह पुरापणामए ।
छंदेण पलेतिमा पया ।
(२०४४) माया और मोह से ढंका हुआ प्राणी स्वेच्छा से विभिन्न गतियों में पर्यटन करता है ।
मुक्त-भोगों की ओर मत देखो ।
अभिकले उहि मित्तए ।
(२०४३)
उपधि - मान और कर्म को दूर करने की अभिलाषा
सव्वस्य विणीयमच्छरे ।
६५३
(२०४१)
करो।
जे दूवण ण ते हि णो गया ।
( २२४१ ) जो विषयों के प्रति नत होते हैं, वे समाधि को नहीं जान पाते ।
(२०५२)
आतहितं दुक्खेण लम्भते ।
आत्महित की साधना अत्यन्त दुर्लभ है । जे इह सायागा बरा, अकोववरणा कामेहि मुच्छिया। किण समं पराया न विसमाहिमाहियं । (२०५८) निम्नोक्त व्यक्ति समाधि को नहीं जान सकते१. जो सुख-सुविधा के पीछे दौड़ते हैं।
२. जो आसक्त जीवन जीते हैं ।
३. जो कामभोगों में मूच्छित है।
४. जो दोषों का परिमार्जन करने में कृपण है । मावच्छ असाहुया भवे अच्चेही अणुसास अप्पगं । ( २०६१ ) मरणकाल में शोक या अनुताप न हो इसलिए तू कामभोगों का अतिक्रमण कर अपने को अनुशासित कर । णय संखयमाहु जीवियं ।
(२०६४)
टूटे हुए जीवन को सांधा नहीं जा सकता । सह अवश्यंसणा ।
हे अर्वाग्दर्शी ! तुम द्रष्टा वचन पर श्रद्धा करो ! सोच्या गावास सच्चे तत्कर्म ।
(२०६८) भगवान् के अनुशासन को सुनकर सत्य को पाने का प्रयत्न करो ।
किसी के प्रति मात्सर्यभाव मत रखो ।
इणमेव वणं वियाणिया ।
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उपलब्धि का क्षण यही है ।
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(२०४९) कठिनाई पैदा होती है।
(२०६५)
परिशिष्ट ३ सूक्त और सुभाषित :
मुहत्ता हलस्स, गृहलो होड सारियो।
(3188)
कोई एक क्षण वैसा होता है, जिसमें व्यक्ति का अध:पतन या उर्ध्वारोहण होता है । वितिगिमावण्णा, पंथाणं व अकोविया ।
(२०४४)
व्रण को अधिक खुजलाना ठीक नहीं है, क्योंकि उससे कठिनाई पैदा होती है ।
(२०५२)
व्रण को अधिक खुजलाना ठीक नहीं है, क्योंकि उससे
णाइकंडूइयं सेयं, अण्यस्सावरभई ॥
कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए। भिक्षु अग्लानभाव से रुग्ण साधु की सेवा करे । अणागयमपस्संता, पुष्पणगवेगा ।
पति सी आम जोय ||
(३/७४) भविष्य में होने वाले दुःख को दृष्टि से ओझलक -
मान सुख को खोजने वाले मनुष्य आयुष्य और यौवन के क्षीण होने पर परिताप करते हैं ।
काले पर
नपा परितप्य
(२००५) जो ठीक समय पर पराक्रम करते हैं वे बाद में परिताप नहीं करते ।
ते धीरा बंधणुम्मुक्का, णावकंति जीवियं ।
(३।७५) जो कामभोगमय जीवन की आकांक्षा नहीं करते वे धीर पुरुष बंधन से मुक्त हो जाते हैं ।
मेरा
सेठिया सुसमाहिए। (२०७०) जो अनुकुल परीषों को निरस्त कर देते हैं वे समाधि मैं स्थित हो जाते हैं। आमोक्खाए परिव्वज्जासि । पुरुष ! तू मोक्ष प्राप्ति तक चलता चल । बालस्स मंदयं बीयं, जं च कडं अवजाणई भुज्जो ।
(३८२)
(४२९)
मूढ़ की यह दूसरी मंदता है कि वह किए हुए पाप को नकारता है ।
(२०५९)
दुगुणं करेड से पावं, पूयणकामो विसरणेसी ।
(४।२६)
जो पूजा का इच्छुक और असंयम का आकांक्षी होता है, वह दूना पाप करता है ।
बद्धे विसयपासहि, मोहमावजह पुणो मंदे |
(४,३१)
जो विषय पाश में आबद्ध होता है, वह मंद मनुष्य फिर मोह में फंस जाता है ।
दुक्खति दुक्खी इह दुक्कडेणं ।
(२०१६)
अपने दुष्कृत से दुःखी बना हुआ प्राणी दु:ख का ही अनुभव करता है ।
(२०६८)
(२०७३) एगो सर्व पच्यो
।
प्राणी अकेला ही दुःख का अनुभव करता है ।
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(२०४९)
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