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असंकियाई संकंति, संकियाई असंकिणो ।
(२०३३)
दिग्मूढ प्राणी अशंकनीय के प्रति शंका करते हैं और शंकनीय के प्रति अशंकित रहते हैं ।
अंधो अंध पहं तो, दूरमद्वाण गच्छ 1
(२०४६)
अंधा व्यक्ति अंधे का मार्गदर्शन करता है तो वह भटका
देता है, मूल रास्ते से दूर ले जाता है ।
सयं सर्व पसंसंता, गरहता परं वयं ।
जे उ तत्थ विउस्संति संसारं ते विउस्सिया ||
( १५० )
अपने-अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मतों की निन्दा करते हुए जो गर्व से उछलते हैं वे संसार (जन्म-मरण की परम्परा) को बढ़ावा देते हैं ।
जहा आसार्वािणि णावं, जाइअंधो दुरूहिया | इयपारमा अंतराने दिलीपई ।
परिशिष्ट ३ सूक्त और सुभाषित
( १.२० ) जन्मान्ध मनुष्य सच्छिद्र नौका में बैठकर समुद्र का पार पाना चाहता है, पर वह उसका पार नहीं पाता, बीच में ही डूब जाता है ।
अमण्यमुपायं दृश्यमेव। समुपजाता हि पाहिब?
( १/६९ )
दुःख असंयम से उत्पन्न होता है—यह ज्ञातव्य है । जो दुःख की उत्पत्ति को नहीं जानते वे संवर (दुःख निरोध) को कैसे जानेगे ?
सएसए उवद्वाणे, सिद्धिमेव ण अन्नहा ।
( १/७३) अपने मत की प्रशंसा करने वाले कहते हैं—अपने-अपने सांप्रदायिक अनुष्ठान में ही सिद्धि होती है, दूसरे प्रकार से नहीं होती ।
सब्वे अकंलक्खा य, कोई भी जीव है।
एयं खुणाणिणो सारं, जंण हिंसइ कंचणं । अहिंसा समयं चैव एयावंतं वियाणिया ।
अओ सच्चे अहिंसा ।
(१८४) दुःख नहीं चाहता, इसलिए सभी जीव
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(१२८५)
ज्ञानी होने का यही सार है कि वह किसी की हिंसा नहीं करता । समता अहिंसा है, इतना ही उसे जानना है ।
बुसिले विगयगिडी व आबानं सारख ।
(8158) संयमी व्यक्ति धर्म में स्थित रहे। वह किसी भी इन्द्रियविषय में आसक्त न बने और आत्मा का संरक्षण करे । संबुझह कि 'बुज्झहा, संबोही खलु पेच्च दुल्लहा । णो हूवणमंति राइओ, जो सुलभं पुणरावि जीवियं ॥ ( २०१ )
संबोधि को प्राप्त करो। बोधि को प्राप्त क्यों नहीं कर रहे हो ? जो वर्तमान में संबोधि को प्राप्त नहीं होता, उसे अगले जन्म में भी वह सुलभ नहीं होती। बीती हुई रातें लौटकर नहीं आतीं। जीवन सूत्र के टूट जाने पर उसे पुन: सांधना सुलभ नहीं है।
मोहं जंति णरा असंबुडा । जो अणुसासनमेव पक्कमे ।
(२०१०)
होते हैं, वे मोह को प्राप्त होते हैं।
(२०११)
( २०१४ )
जे यावि अणायगे सिथा, जे वि य पेसगपेसगे सिया । इद मोणपयं उबट्ठिए. जो लज्जे समयं सया चरे ।। ( २।२५ )
तू अनुशासन का अनुसरण कर । सामेव पव
अहिंसा में ही प्रव्रजन कर ।
एक सर्वोच्च अधिपति हो और दूसरा उसके नौकर का नौकर हो । वह सर्वोच्च अधिपति मुनिपद की प्रव्रज्या स्वीकार कर ( पहले से प्रव्रजित अपने नौकर के नौकर को वन्दना करने में ) लज्जा का अनुभव न करे, सदा समता का आचरण करे । समता धम्ममुदाहरे मुणी ।
(२/२८)
मुनि समता धर्म का निरूपण करे ।
सुह मे सल्ले वुद्धरे ।
(२०३३)
वंदना-पूजा ऐसा सूक्ष्म सत्य है जो सरलता से नहीं निकाला जा सकता ।
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सामाइयमाहु तस्स जं, जो अप्पाण भए ण दंसए । ( २३ ) जो भय से विचलित नहीं होता, उस साधक के सामाबिक होता है।
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