SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 341
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूयगडो । अध्ययन ६ : टिप्पण ६४-६७ है-कूटशाल्मली। वृत्तिकार के अनुसार यह देवकुरु में अवस्थित प्रसिद्ध वृक्ष है । यह भवनषति देवों का क्रीडा-स्थल है। अन्यान्य स्थानों से आकर सुपर्णकुमार देव यहां रमणक्रीडा का आनन्द अनुभव करते हैं।' चूर्णिकार ने 'कूडसामली' का प्रयोग किया है। उत्तराध्ययन २०१३६ में भी 'कूडसामली' का प्रयोग है।' शाल्मली सिम्बल वृक्ष का वाचक है।" इसको अंग्रेजी में Silk-Cotton tree माना है।' ६४. प्रसिद्ध है (णाते) ___ ज्ञात शब्द के दो अर्थ हैं-प्रसिद्ध अथवा उदाहरण । लोग सभी वृक्षो से इसे (शाल्मली वृक्ष को) अधिक जानते हैं, इसलिए वह ज्ञात है। अथवा सभी वृक्षों में यह दृष्टान्तभूत है अतः वह ज्ञात है । अहो ! यह वृक्ष सुन्दर है। संभव है यह सुदर्शना, जंबू या कूट शाल्मली वृक्ष हो।' ६५. नंदनवन (णंदणं) सभी वनों में नन्दन-वन श्रेष्ठ है । वह प्रमाण की दृष्टि से भी बृहद् है और उपभोग सामग्री की दृष्टि से भी श्रेष्ठ है। वह देवताओं का प्रधान क्रीडा-स्थल है। ६६. सत्यप्रज्ञ (भूतिपण्णे) देखें-छठे तथा पन्द्रहवें श्लोक का टिप्पण । श्लोक १६: ६७. मेघ का गर्जन (थणितं व...) प्रावृट् काल में जल से भरे बादलों का गर्जन स्निग्ध होता है। शरद ऋतु के नए बादलों का गर्जन भी स्निग्ध होता है। कहा भी है-शरद घन के गर्जन जैसे गंभीर घोष वाले।' वृत्तिकार ने इसे सामान्य मेघ का गर्जन माना है।" १. ठाणं, २१२७१,३३०,३३२, ८।६४; १०११३८ । समवायांग ८।५। २. वृत्ति, पत्र १४८: देवकुरुव्यवस्थितः शाल्मलीबृक्षः, स च भवनपतिक्रीडास्थानम् । यत्र व्यवस्थिता अन्यतश्चागत्य...."रमणक्रीडा ."अनुभवन्ति । ३. चूणि, पृ० १४७ :.......""कूडसामली। ४. उत्तरज्झयणाणि, २०१३६ अप्पा मे कूडसामली । ५. पद्मचन्द्रकोष, पृ० ४८४ : शाल्मल-सिम्बल का व्रत । ६. आप्टे, संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी । ७. चूणि, पृ०१४७ : ज्ञायत इति सर्ववृक्षेभ्योऽधिका, लोकेनापि ज्ञातम् । अहवा णातं आहरणं ति य एगट्ठ, सर्ववृक्षाणामसौ दृष्टान्तभूता-अहो ! अयं शोभनो वक्षः ज्ञायते सुदर्शना जम्बू कूडसामली वेति । ८ चूणि, पृ० १४७ : नन्दन्ति तत्रेति नन्दनम्, सर्ववनानां हि नन्दनं विशिष्यते प्रमाणतः पत्रोपगाद्य पभोगतश्च । (ख) वृत्ति, पत्र १४८ : वनेषु च मध्ये यथा नन्दनं वनं देवानां क्रीडास्थानं प्रधानम । ६. चूणि, पृ० १४७ : थणंतीति थणिताः, प्रावृट्काले हि सजलानां घनानां स्निग्धं गजितं भवति अभिनवशरधनानां च । उक्तं च - 'सारतणिद्धथणितगंभीरघोसि'। १०. वृत्ति, पत्र १४८ : 'स्तनितं' मेघगजितम् । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy