SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 342
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूयगडो १ ३०५ अध्ययन ६ : टिप्पण ६८-७३ ६८. तारागण में चन्द्रमा (चंदे व ताराण) चन्द्रमा समस्त नक्षत्रों में महा प्रभावी है । वह समस्त व्यक्तियों को आनन्द देने वाली कान्ति से मनोरम है।' ६९. चन्दन (चंदण) वृत्तिकार ने दो प्रकार के चन्दनों का उल्लेख किया है१. गोशीर्ष चन्दन । २. मलयज चन्दन । कोषकार ने गोशीर्ष पर्वत पर उत्पन्न चन्दन को 'गोशीर्ष चन्दन' और मलय पर्वत पर उत्पन्न चन्दन को 'मलय चन्दन' माना है। 'मलय' दक्षिण भारत की पर्वत-शृंखला है।' ७०. अनासक्त (अपडिण्णं) वह व्यक्ति अप्रतिज्ञ होता है जो इहलोक और परलोक के प्रति प्रतिबद्ध नहीं है, अनाशंसी है अर्थात् जो संपूर्ण अनासक्त है।' मुनि को अप्रतिज्ञ होना चाहिए । वह किसी के प्रति प्रतिबद्ध न हो । वह केवल आत्मा के प्रति ही प्रतिबद्ध रहे। श्लोक २०: ७१. स्वयंभू (सयंभू) दृत्तिकार ने स्वयंभू का अर्थ-स्वयं उत्पन्न होने वाले अर्थात् देव किया है। जहां देव आकर रमण करते हैं वह समुद्र हैस्वयंभूरमण। यह समुद्र समस्त द्वीप और समुद्रों के अन्त में स्थित है।' ७२. नागकुमार देवोंमें (णागेसु) नागकुमारदेव भवनपति देवों की एक जाति है। चूणिकार के अनुसार नागकुमारों के लिए जल या स्थल-कुछ भी अगम्य नहीं रहता इसलिए वे 'नाग' कहलाते हैं।' ७३. रसों में इक्षु रस श्रेष्ठ होता है (खोओदए वा रस-वेजयंते) क्षोद का अर्थ है-इक्षुरस । जिस समुद्र का पानी इक्षु रस की तरह मीठा है, उसे क्षोदोदक कहा जाता है।' क्षोदोदक समुद्र रस-माधूर्य से सब रसों को जीत लेता है, इसलिए वह 'रसवैजयन्त' कहलाता है। वृत्तिकार ने वैजयन्त १. वृत्ति, पत्र १४६ : नक्षत्राणां मध्ये यथा चन्द्रो महानुभावः सकलजननिर्वृत्तिकारिण्या कान्त्या मनोरमः श्रेष्ठः । २. वृत्ति, पत्र १४६ : 'चन्दनं' गोशीर्षकाख्यं मलयजं वा । ३. (क) पाचन्द्र कोष, पृ० १८७ : गोशीर्षः (पर्वतः), तत्र जातत्वात् । (ख) वही, पृष्ठ ३७६ : मलये पर्वते जायते । (ग) आप्टे, संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी । ४ (क) चणि, पृ० १४७ : श्रेष्ठो मुनीनां तु अप्रतिज्ञः । नास्येहलोकं परलोक वा प्रति प्रतिज्ञा विद्यत इति अप्रतिज्ञः । (ख) वृत्ति पत्र १४६ : नाऽस्य प्रतिज्ञा इहलोकपरलोकाऽऽशंसिनी विद्यते इत्यप्रतिज्ञः। ५. (क) वृत्ति, पत्र १४६ : स्वयं भवन्तीति स्वयम्भुवो-देवाः ते तत्राऽऽगत्य रमन्तीति स्वयम्भूरमणः । (ख) चूणि, पृ० १४८ । ६ चूर्णि, पृ० १४८ : न तेषां किञ्चिज्जलं थलं वा अगम्यमिति नाग। ७. (क) चूणि, पृ० १४८ : खोतोदगं णाम उच्छरसोदगस्य समुद्रस्य, अधवा इहापि इक्षरसो मधुर एव । (ख) वृत्ति, पत्र १४९ : खोओदए इति इक्षुरस इवोदकं यस्य स इक्षुरसोदकः । म चूणि, पृ० १४८ ।.....सब्वे रमे माधर्येण विजयत इति वेजयन्तः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy