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________________ सूयगडो. प्रध्ययन ६: टिप्पण ७४-७८ का अर्थ प्रधान या सभी समुद्रों में पताकाभूत किया है।' ७४. तपस्वी मुनियों में (तहोवहाणे) तहोवहाणे' इस पाठ में दो पद हैं-तहा' और 'उवहाणे' । वृत्ति में 'तवोवहाणे' पाठ व्याख्यात है। उपधान का प्रयोग स्वतंत्र भी होता है और तप के साथ में भी होता है। इसलिए 'तवोवहाणे' पाठ भी त्रुटिपूर्ण नहीं है। उत्तराध्ययन में दूसरे अध्ययन में 'तवोवहाण'' का और ग्यारहवें अध्ययन में 'उवहाणवं' का प्रयोग मिलता है। आचारांग नियुक्ति में बतलाया है- भगवान् महावीर अपने बल वीर्य को छिपाते नहीं थे, तप-उपधान में उद्यम करते थे ।' उपधान का शाब्दिक अर्थ है-आलंबन । प्रस्तुत प्रकरण में उसका अर्थ है-ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप । उपधान का एक अर्थ-शास्त्राध्ययन के समय किया जाने वाला तप या उसका संकल्प भी होता है । किन्तु यहां यह अर्थ प्रस्तुत नहीं है। श्लोक २१: ७५. पशुओं में (मिगाणं) मृग का अर्थ है- वन्यपशु ।' ७६. नदियों में (सलिलाण) चूर्णिकार ने सलिला का अर्थ 'नदी" और वृत्तिकार ने 'पानी' किया है। यहां चूर्णिकार का अर्थ ही संगत लगता है। ७७. वेणुदेव गरुड (वेणुदेवे) 'वेणुदेव' यह गरुड का दूसरा नाम है।" चूर्णिकार ने इसे लोकरूढ मान कर इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ विनता का पुत्र वैनतेय किया है।" ७८. निर्वाणवादियों में (णिव्वाणवादी) निर्वाणवादी अर्थात् मोक्षवादी । प्राचीन काल में दार्शनिक जगत् में दो परंपराएं मुख्य रही हैं-निर्वाणवादी परंपरा और स्वर्गवादी परंपरा । श्रमण परंपरा निर्वाणवादी परंपरा है। उसमें साधना का लक्ष्य निर्वाण है और वही उसका सर्वोच्च आदर्श है। भगवान महावीर ने इस आदर्श को सर्वाधिक मूल्य दिया, इसलिए वे निर्वाणवादियों में श्रेष्ठ हैं । १. वृत्ति, पत्र १४६ : वैजयन्तः प्रधानः स्वगुणैरपरसमुद्राणां पताकेवोपरि व्यवस्थितः । २. उत्तरज्झयणाणि २।४३ : तवोवहाणमादाप । ३. उत्तरज्झयणाणि ११३१४ : जोगवं उबहाणगं । ४. आचारांग नियुक्ति, गाथा २७७ :...............। ___ अणिमूहियबलविरिओ तवोवहाणंमि उज्जमइ । ५. आचारांग नियुक्ति, गाया २८१ : बवबहाणं सयणे भावुवहाणं तवोचरित्तस्स । __ तम्हा उ नाणदंसणतवचरणेहि इहागहियं ॥ ६. मूलाचार गाथा २८२ : आयंबिल णिव्वियडी अण्णं वा होदि जस्स कादव्वं । तं तस्स करेमाणो उपहाणजुदो हवदि एसो।। ७. उत्तराध्ययन १११२०, वृहद् वृत्ति, पत्र ३४६ : मृगाणाम्-आरण्यप्राणिनाम् । (ख) वृत्ति, पत्र १४६ : सृगाणां च श्वापदानाम् । ८ चूर्णि, पृ० १४८ : सलिलवत्यः सलिलाः । ९. वृत्ति पत्र १४६ : सलिलानां ....... 'गङ्गासलिलं । १० वृत्ति, पत्र १४६ : गरुत्मान् वेणुदेवाऽपरनामा । ११. चूणि, पृ० १४८ : वेणुदेवे लोकरूढोऽयं शब्द:-विनताया अपत्यं वैनतेयः । १२. उत्तरज्झयणाणि २३१८०-८५। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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