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सूयगडो १
अध्ययन ६ : टिप्पण ७६.८१
श्लोक २२:
७६. वासुदेव कृष्ण (वीससेणे)
इसके संस्कृत रूप दो होते हैं-विश्वसेन और विश्वक्सेन । चूणिकार ने इस शब्द का व्युत्पत्तिकलभ्य अर्थ इस प्रकार किया है--विश्वा-अनेकप्रकोरा सेना यस्य स भवति विश्वसेनः-जिसके पास हाथी, रथ, अश्व, पदाति -- यह चतुरंग सेना हो वह विश्वसेन है। वह चक्रवर्ती हो सकता है।'
वृत्तिकार ने यही अर्थ मान्य किया है ।' चूर्णिकार ने इसका वैकल्पिक अर्थ-विश्वक्सेन-वासुदेव किया है।'
वास्तव में चूणिकार का यह वैकल्पिक अर्थ ही संगत लगता है, क्योंकि चक्रवर्ती योद्धा नहीं होते । योद्धा होते हैं- वासुदेव । स्थानांग सूत्र में भी वासुदेव को ही 'युद्धशूर' बतलाया है।'
प्रस्तुत प्रकरण में भी विश्वक्सेन को श्रेष्ठ योद्धा बताया है, अत: विश्वक्सेन का अर्थ वासुदेव करना ही युक्तिसंगत लगता है। ८०. दन्तवक्त्र (दंतवक्के)
चुणिकार ने इस शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है जिसके वाक्य से-बोलने से शत्रुओं का दमन होता है या जिसका वाक्य दान्त (संयमित) है वह दान्तवाक्य है।'
जिसके वाक्य से ही शत्रु शांत हो जाते हैं, वह दान्तवाक्य है-यह वृत्तिकार की व्युत्पत्ति है।' चूर्णिकार और वृत्तिकार ने चक्रवर्ती को दान्तवाक्य माना है।'
महाभारत सभापर्व ३२/३ में दन्तवक्त्र नामक क्षत्रिय का उल्लेख है। उसे राजाओं का अधिपति और महान पराक्रमी माना है। इस कथन से दन्तवक्त्र की श्रेष्ठता ध्वनित होती है।
प्रस्तुत प्रसंग में यही अर्थ संगत लगता है। चूर्णिकार और वृत्तिकार ने केबल शाब्दिक मीमांसा से वह अर्थ निकाला हो, ऐसा लगता है।
निशीथ चूणि में दो स्थानों में दंतपुर के राजा दंतवक्त्र का उल्लेख हुआ है।'
श्लोक २३: ८१. दानों में अभयदान प्रधान होता है (दाणाण सेठें अभयप्पयाणं)
सभी प्रकार के दानों में अभयदान श्रेष्ठ है। अभयदान त्राणकारी होने के कारण श्रेष्ठ है । कहा भी है
१. चूणि, पृ० १४८ : विश्वा- अनेकप्रकारा सेना यस्य स भवति विश्वसेनः--हस्त्यश्च-रथ-पदात्याकुला विस्तीर्णा, स तु चक्रवर्ती। २. वृत्ति, पत्र १४६ : विश्वा-हस्त्यश्वरथपदातिचतुरङ्गबलसमेता सेना यस्य स विश्वसेनः-चक्रवर्ती । ३. चूणि, पृ० १४८ : अथवा विष्वक्सेनः वासुदेवः । ४. ठाणं, ४।३६७ : जुद्धसूरे वासुदेवे । ५. चूणि, पृ० १४८ : दम्यन्ते यस्य वाक्येन शत्रवः स भवति दान्तवाक्यः चक्रवर्ती, चक्रवत्तिनो हि शत्रवो वचसा दम्यन्ते, दान्तं वाक्यं
यस्य स भवति दान्तवाक्यः । ६. वृत्ति, पत्र १४६ : दान्ता-उपशान्ता यस्य वाक्येनैव शत्रवः स दान्तवाक्यः । ७. (क) चूणि, पृ० १४८ : दान्तवाक्यः चक्रवर्ती।
(ख) वृत्ति, पत्र १४६: दान्तवाक्यः चक्रवर्ती। ८. महाभारत, सभापर्व ३२३ अधिराजाधिपं चैव दन्तवक्त्रं महाबलम् । ६. निशीय भाष्य, चूणि भाग २ पृ० १६६ ; भाग ४ पृ० ३६१ ।
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