________________
सूयगडो ।
३०८
प्रध्ययन ६ : टिप्पण ८१-८२ 'दीयते म्रियमाणस्य. कोटि जीवितमेव वा।
धनकोटिं न गृह्णीयात्, सर्वो जीवितुमिच्छति ॥' एक ओर करोड़ों का धन है और एक ओर जीवनदान है तो मरता हुआ व्यक्ति करोड़ों के धन को छोड़कर जीवनदान चाहेगा, क्योंकि सभी जीना चाहते हैं।'
वसन्तपुर नगर में अरिदमन नाम का राजा था। एक दिन वह अपनी चार रानियों के साथ क्रीडा करता हुआ प्रासाद के गवाक्ष में बैठा था। प्रासाद के नीचे से लोग आ-जा रहे थे। सबकी आंखे राजमार्ग पर लगी हुई थी। राजपुरुष एक चोर को पकड़ कर ला रहे थे। उस चोर के गले में लाल कनेर की माला थी। उसके सारे कपड़े लाल थे। उसके समूचे शरीर पर लाल चन्दन का लेप लगा हुआ था। उसके पीछे-पीछे उसके वध की सूचना देने वाला ढिंढोरा पीटा जा रहा था। चाण्डाल उसे वध-स्थान की ओर ले जा रहे थे। राजा ने देखा । रानियों ने उसे देखकर राजपुरुष से पूछा-इसने क्या अपराध किया है ? राजपुरुष ने कहाइसने चोरी की है और राज-आज्ञा के विरुद्ध कार्य किया है। यह सुनकर रानियों का मन करुणा से भर गया। एक रानी ने कहा'आपने मुझे पहले एक वर दिया था। आज मैं उसे क्रियान्वित करना चाहती हूं ताकि इस चोर का कुछ उपकार कर सकू।' राजा ने कहा-जैसी इच्छा हो वैसा करो।' उस रानी की आज्ञा से चोर को स्नान कराया गया। उसे उत्तम अलंकारों से अलंकृत कर हजार मोहरें देकर एक दिन के लिए ऐश-आराम करने की छूट दी।
दूसरी रानी ने भी राजा से वर लिया और एक लाख मोहरें खर्च कर, चोर को दूसरे दिन, सब प्रकार के भोग भोगने की छूट दी।
तीसरी रानी ने तीसरे दिन के लिए कोटि-दीनार व्यय कर चोर को सुख भोगने की छूट दी।
अब चौथी रानी की बारी थी। वह मौन थी। राजा ने कहा---'तुम भी कुछ वर मांगो, जिससे कि तुम भी चोर को कुछ दे सको।' उसने कहा-'प्रियवर ! मेरे पास ऐसी कोई संपत्ति नहीं है, जिससे कि मैं इस चोर का भला कर सकू।' राजा ने कहाप्रियतमे ! ऐसी क्या बात है ? मैं अपना सारा राज्य तुम्हे देता हूं और स्वयं भी तुम्हारे लिए अर्पित हूं। तुम जो चाहो वह उस चोर को दो।' रानी ने उस चोर को अभयदान दिया, जीवनदान दिया। चोर मुक्त हो गया।
चारों रानियां परस्पर कलह करने लगीं। प्रत्येक रानी यह मानती थी कि उसने चोर का अधिक उपकार किया है। तीनों ने चौथी की मजाक करते हुए कहा-तुमने चोर को दिया ही क्या है ? तुम जैसी कृपण दे भी क्या सकती है ? चौथी रानी ने कहा-'मैंने ही सबसे अधिक उपकार किया है।' परस्पर कलह होने लगा । राजा ने चोर को बुलाकर पूछा-तुम्हारा अधिक उपकार किसने किया है ?' चोर ने कहा-राजन् ! मैं मरण-भय से अत्यन्त भीत था । आकुल-व्याकुल था। मुझे स्नान आदि कराया गया, अलंकरण पहनाए गए, भोग सामग्री प्रस्तुत की गई, किन्तु मेरा मन भय से आक्रान्त रहा। मुझे तनिक भी सुख की अनुभूति नहीं हुई। किन्तु जब मैंने सुना कि मुझे अभयदान मिला है, जीवनदान मिला है, मैं अत्यन्त आनन्द से भर गया और माना कि मेरा नया जन्म हुआ है। ८२. अनवद्य वचन (अणवज्ज)
जो दूसरों के लिए पीडाकारक न हो वह अपापकारी अनवद्य वचन होता है।
सत्य वचन सबसे श्रेष्ठ है। किन्तु जो सत्य पर-पीड़ाकारक होता है वह ग्राह्य नहीं होता । जो पर-पीडाकारक नहीं होता, वैसा सत्य ग्राह्य होता है । सत्य भी गर्हित होता है, यदि वह पर-पीडाकारक हो। जैसे-- काने को काना कहना, नपुंसक को नपुंसक कहना, रोगी को रोगी कहना और चोर को चोर कहना। यद्यपि ये सारे कथन सत्य हैं, किन्तु इनको सुनने वाला व्यक्ति व्यथा का अनुभव करता है, इसलिए यह सत्य भी गर्हित है। १. (क) चूर्णि, पृ० १४८ ।
(ख) वृत्ति, पत्र १५० । २. (क) चूर्णि, पृ० १४६ : अनवद्यमिति यदन्येषामनुपरोधकृतं ।
(ख) वृत्ति, पत्र १५० : 'अनवद्यम्' अपापं परपीडानुत्पादकम् । ३. (क) चूणि, पृ० १४६ ।
(ख) वृत्ति, पत्र १५०।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org