________________
सूयगडो १
१२५
अध्ययन २: टिप्पण १०५-१०६
आचरण नहीं करता और अनागत बोधि की आकांक्षा करता है, उसे भला किस मूल्य पर बोधि प्राप्त होगी ? किसी मूल्य पर नहीं।' इसलिए साधक को प्राप्त बोधि का उपयोग करना चाहिए। जो व्यक्ति श्रामण्य से च्युत हो गया है, उसे बोधि की प्राप्ति सुदुर्लभ है । वह अर्द्धपुद्गल परावर्त तक (उत्कृष्ट रूप से) संसार में परिभ्रमण करता रहता है ।' १०५. काश्यप (भगवान् ऋषभ) के द्वारा (कासवस्स)
चूणिकार' और वृत्तिकार-दोनों ने काश्यप शब्द से भगवान् ऋषभ और भगवान् महावीर का ग्रहण किया है। भगवान् ऋषभ और भगवान् महावीर-दोनों कश्यपगोत्रीय हैं। भगवान् ऋषभ आद्य-काश्यप और भगवान महावीर अन्त्य-काश्यप कहलाते हैं ।
किन्तु संदर्भ की दृष्टि से यहां काश्यप का अर्थ केवल भगवान् ऋषभ ही होना चाहिए, क्योंकि अगला शब्द 'अणुधम्मचारिणो' यही द्योतित करता है।
देखें-२/४७ में 'कासवस्स' का टिप्पण।
श्लोक ७३-७४ १०६. श्लोक ७३-७४
भगवान् ऋषभ अष्टापद (हिमालय की एक शाखा) पर्वत पर विहार कर रहे थे। वह उनकी तपोभूमि थी। वहां ऋषभ के अठानवें पुत्र आए। भगवान् ने उन्हें संबोधि का उपदेश दिया और अन्त में कहा-वर्तमान क्षण ही संबोधि को प्राप्त करने का क्षण है। भगवान् का उपदेश सुन उनके सभी पुत्र संबुद्ध हो गए।
सूत्रकार का मत है कि भगवान् ऋषभ ने जिस संबोधि का प्रतिपादन किया, सभी तीर्थंकर उसी संबोधि का प्रतिपादन करते हैं । इससे यह ज्ञात होता है कि संबोधि एक ही है। वस्तुतः सत्य एक ही है, वह दो हो नहीं सकता। प्रतिपादन की पद्धति और संदर्भ देश-काल के अनुसार बदल जाते हैं, किन्तु सत्य नहीं बदलता। प्रस्तुत आगम के एक श्लोक में इसी सत्य का प्रतिपादन हुआ है-अतीत में जो बुद्ध (बोधिप्राप्त) हुए हैं और जो होंगे उन सबका आधार है शांति। उन सबने शांति को आधार मानकर धर्म का प्रतिपादन किया।
आचारांग के अहिंसा-सूत्र से भी यह मत समर्थित होता है-'जो अर्हत् भगवान् अतीत में हुए हैं, वर्तमान में हैं और भविष्य में होंगे-वे सब ऐसा आख्यान करते हैं, ऐसा भाषण करते हैं, ऐसा प्रज्ञापना करते हैं और ऐसा प्ररूपण करते हैं किसी भी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का हनन नहीं करना चाहिए, उन पर शासन नहीं करना चाहिए, उन्हें दास नहीं बनाना चाहिए, उन्हें परिताप नहीं देना चाहिए, उनका प्राण-वियोजन नहीं करना चाहिए। यह (अहिंसा) धर्म शुद्ध, नित्य और शाश्वत है।' १. आवश्यक नियुक्ति, गाथा १११० : लद्धेल्लियं च बोधि अकरेंतो अणागतं च पत्थितो।
अण्णं दाई बोधि लब्भिसि कयरेण मोल्लेणं? ॥ २. चूणि, पृ० ७५ : विराहित सामण्णस्स हि दुल्लभा बोधी भवति, अवड्ढं पोग्गलपरियट उक्कोसेणं हिंडति । ३. चूणि, पृ० ७६ : काश्यपः उसभस्वामी बद्धमाणस्वामी वा। ४. वृत्ति, पत्र ७७ : काश्यपस्य ऋषभस्वामिनो वर्द्धमानस्वामिनो वा । ५. (क) चूणि, पृ० ७५ : रिसमसामी भगवं अट्ठावए पुत्तसंबोधणत्थं एवमाह ।
(ख) वृत्ति, पत्र ७७ : नाभेयोऽष्टापदे स्वान् सुतानुद्दिश्य । ६. वृत्ति, पत्र ७७ : अनेनेदमुक्तं भवति–तेषामपि जिनत्वं सुव्रतत्वादेवायातमिति, ते सर्वेऽत्येतान्-अनन्तरोदितान् गुणान् 'आहुः'
अभिहितवन्तः, नात्र सर्वज्ञानां कश्चिन्मतभेद इत्युक्तं भवति, ते च 'कश्यपस्य' ऋषभस्वामिनो वर्द्धमानस्वामिनो वा सर्वेऽप्यनुचीर्णधर्मचारिण इति, अनेन च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मक एक एव मोक्षमार्ग इत्यावेदितं भवतीति । ७. सूयगडो-१/११/३६ जे य बुद्धा अतिक्कंता, जे य बुद्धा अणागया।
संती तेसि पइट्ठाणं भूयाण जगई जहा ॥ ८. आयारो ४/१ : से बेमि- जे अईया, जे य पडुप्पन्ना, जे य आगमेस्सा अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं
पण्णवेंति, एवं परूवेंति-सव्वे पाणा सवे भूता सव्वे जीवा सव्वे सत्ता ण हंतव्वा, ण अज्जावेयम्वा, ण परितावेयव्वा, ण उद्दवेयव्वा ।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org