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सूयगडो १
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अध्ययन २ : टिप्पण १०१-१०४ मनुष्य अपने कृतकर्म के अनुसार नाना अवस्थाओं को प्राप्त होता है। पृथ्वी, पानी आदि जीवों का विभाग भी अपने किए हुए कर्मों के कारण ही है। सत्तर से बहत्तरवें श्लोक तक 'अशरण भावना' प्रतिपादित है। ईश्वरवादी किसी को शरण मान सकता है किन्तु कर्मवादी किसी को शरण नहीं मानता। प्रत्येक कार्य और उसके परिणामों के प्रति अपने दायित्व का अनुभव करता है। उस दायित्व के अनुभव का एक महत्वपूर्ण सूत्र है-अशरण अनुप्रेक्षा । इसका प्रतिपादन 'आयारो' में भी हुआ है । देखें आयारो २१४-२६ । १०१. (तपश्चरण) में आलसी (सढ)
चूणिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं
१. तपश्चरण में उद्यम नहीं करने वाला।
२. तपस्या में माया करने वाला। उन्होंने तात्पर्याथं में पापकर्मों से ओतप्रोत को शठ माना है।
वृत्तिकार ने इसका अर्थ मायावी किया है।' १०२. जन्म, जरा और मरण से (जाइजरामरणेहि)
चणिकार ने 'जाइ' के स्थान पर 'वाहि' (व्याधि) पाठ मानकर व्याख्या की है। उन्होंने सूचित किया है कि नरक, तिर्यञ्च और मनुष्य-इन तीन गतियों के जीव व्याधि का अनुभव करते हैं । जरा-बुढ़ापा केवल तिर्यञ्च और मनुष्य गति में ही होता है और मरण-चारों गतियों में होता है।'
श्लोक ७३: १०३. क्षण को (खणं)
क्षण का अर्थ होता है-उपलब्धि का क्षण। चूर्णिकार ने क्षण का मूल्यांकन करते हुए चार प्रकार के क्षणों की चर्चा की है–सम्यक्त्व सामायिक क्षण, श्रुत सामायिक क्षण, गृहस्थ सामायिक क्षण और मुनि सामायिक क्षण। इनमें सम्यक्त्व सामायिक और श्रुत सामायिक के क्षण दुर्लभ हैं। चारित्र सामायिक (गृहस्थ सामायिक और मुनि सामायिक) के क्षण दुर्लभतर हैं। इसीलिए सूत्रकार ने कहा है-'वर्तमान में उपलब्ध मुनि-सामायिक के क्षण का मूल्यांकन करो। इस बोधि-चारित्र के क्षण का मिलना सुलभ नहीं है।
वृत्तिकार ने क्षण का अर्थ अवसर किया है। उन्होंने क्षण के चार प्रकारों की चर्चा की है-द्रव्यक्षण, क्षेत्रक्षण, कालक्षण और भावक्षण। १०४. बोधि (बोधि)
बोधि तीन प्रकार की होती है-ज्ञान बोधि, दर्शन बोधि और चारित्र बोधि । वृत्तिकार के अनुसार बोधि का अर्थ हैसम्यक् दर्शन की प्राप्ति । जो धर्म का आचरण नहीं करते उन्हें बोधि प्राप्त नहीं होती। किन्तु यहां बोधि चारित्र के अर्थ में विवक्षित है। चूणिकार ने चारित्रबोधि की दुर्लभता प्रतिपादित की है। आवश्यक नियुक्ति में कहा है-जो बोधि को प्राप्त कर उसके अनुसार १. चूणि, पृ० ७५ : सढा नाम तपश्वरणे नियमाः शठी भूता वा पापकर्मभिः ओतप्रोता इत्यर्थः । २. वृत्ति, पत्र ७६ : शठकर्मकारित्वात् शठा: । ३. चूणि, पृ० ७५ : वाधि-जरा-मरणेहऽभिदुता, नारक-तिर्यग् मनुष्येषु व्याधिः, जरा-तिर्यग्-मनुष्येषु, मरणं चतुसृष्वपि गतिषु । ४. चूणि, पृ० ७५ : क्षीयत इति क्षण :, स तु सम्मत्तसामाइयादि चतुर्विधस्यापि एक्केक्कस्स चतुर्विधो खणो भवति, तं जधा-खेत्तखणो
कालखणो कम्मखणो रिक्ख (क्क) खणो। ५. वृत्ति, पत्र ७७ : द्रव्यक्षेत्रकालमावलक्षणं क्षणम् अवसरम् । ६. ठाणं ३/१७६ : तिविहा बोधी पण्णता, तं जहा-णाणबोधी, सणबोधी, चरित्तबोधी। ७. वृत्ति, पत्र ७७ : बोधि च सम्यग्दर्शनावाप्तिक्षणाम् । क. चूणि, पृ०७५।
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