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________________ सूयगगे १ १२३ अध्ययन २: टिप्पण ६७-१०० ६७. मोक्षार्थी (आयतढिए) ___दशवकालिक सूत्र में दो स्थानों (२२२३४, ६४सू ४) में 'आययट्ठिए' पाठ का प्रयोग मिलता है। चूणिकार अगस्त्यसिंह स्थविर ने इसका अर्थ-भविष्य में हित चाहने वाला किया है। उनके अनुसार आयति+अर्थिक शब्द बनता है। चूणिकार जिनदास ने आयत अर्थी शब्द मानकर 'आयत' का अर्थ मोक्ष किया है । आयतार्थी-मोक्ष चाहने वाला। प्रस्तुत सूत्र की चूणि में आयत का अर्थ-दृढ़ ग्रहण किया है।' इसकी व्याख्या आयति+अथिक और आयत+अथिकदोनों के आधार पर की जा सकती है । आयति-अर्थिक-भविष्य का हित चाहने वाला और आयत-अर्थिक-दूर का हित चाहने वाला। श्लोक ७० १८. धन (वित्त) वित्त का अर्थ है धन, धान्य और हिरण्य-सोना चांदी आदि।' श्लोक ७१ EE. अभ्यागमिक...'औपक्रमिक (अब्भागमियम्मि..... ओवक्कमिए) चूर्णिकार ने अभ्यागमिक का मुख्य अर्थ धातुक्षोभ से होने वाला व्याधि-विकार और वैकल्पिक अर्थ-आगन्तुक रोग (चोट आदि) किया है। वृत्तिकार के अनुसार पूर्वाजित असातवेदनीय कर्म के उदय से होने वाला दुःख अभ्यागमिक कहलाता है।' चूर्णिकार और वृत्तिकार के अनुसार औपक्रमिक का अर्थ अनानुपूर्वी से होने वाला कर्मोदय है जो कर्मोदय विपक्व नहीं है किन्तु प्रयत्न के द्वारा उसका विपाक किया गया है।' प्रज्ञापना में आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी-दो प्रकार की वेदना बतलाई गई है। मलयगिरी ने आभ्युपगमिकी वेदना का अर्थ-अपनी इच्छा से स्वीकृत पीड़ा किया है। सूर्य का आतप सहन करने से जो शारीरिक पीड़ा होती है वह आभ्युपगमिकी वेदना है। स्वतः या प्रयत्न के द्वारा उदयप्राप्त वेदनीय कर्म के विपाक से होने वाला कष्ट का अनुभव औपक्रमिकी वेदना है। श्लोक ७२ १००. प्राणी अपने-अपने कर्मों से विभक्त हैं (सयकम्मकप्पिया) जैन दर्शन में ईश्वरकर्तृत्व मान्य नहीं है। ऐसी कोई परम सत्ता नहीं है जो हमारे भाग्य का नियमन करती हो । प्रत्येक १. दशवकालिक, ५।२।३४ अगस्त्यणि पृ० १३३ : आयतट्ठी आगामिणि काले हितमायतीहितं, आततिहितेण अत्थी आयत्याभिलासी। २. दशवकालिक, २२१३४ जिनदासचूणि पृ० २०२ : आयतो-मोक्खो भण्णइ, तं आययं अत्ययतीति आययट्ठी। ३. चूणि, पृ० ७४ : आयतार्थिकत्वम्, अत्थो णाम णाणावि, आयतो णाम दृढग्राहः, आयतविहारकमित्यर्थः । ४. (क) चूणि, पृ० ७४ : वित्तं हिरण्णादि । (ख) वृत्ति पत्र ७६ : वित्तं धनधान्यहिरण्यादि । ५. चूणि, पृ० ७५ : अभिमुखं आगमिक अभ्यागमिकं व्याधिविकारः, स तु धातुक्षोभादागन्तुको वा । ६. वृत्ति, पत्र ७६ : पूर्वोपात्तासातवेदनीयोदयेनाभ्यागते दुःखे। ७. (क) चूणि, पृ० ७५ : उपक्रमाज्जातमिति औपक्रमिकम्, अनानुपूा इत्यर्थः, निरुपक्रमायुःकरणम् । (ख) वृत्ति, पत्र ७६ : उपक्रमकारणरुपक्रान्ते स्वायुषि स्थितिक्षयेण वा । ८. प्रज्ञापना पद ३५, वृत्ति पत्र ५५७ : तत्राभ्युपगमिको नाम या स्वयमभ्युपगम्यते, तथा साधुभिः केशोल्लुञ्चनातापनादिभिः शरीरपोडा, अभ्युपगमेन - स्वयमङ्गीकारेण निर्वृत्ता आभ्युपगमिकीति व्युत्पत्तेः, उपक्रमणमुपक्रमः-स्वयमेव समीपे भवनमुदीरणाकरणेन वा समीपानयनं तेन निर्वृत्ता औपक्रमिको, स्वपमुदोर्णस्य उदीरणाकरणेन वा उदयमुपनीतस्य वेदनीयकमणो विपाकानुभवनेन निर्वता इत्यर्थः। _ dain Education liternational Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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