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यूयगडो १
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अध्ययन २: टिप्पण ६३-६६
श्लोक ६८: ६३. अनुशासन को (अणुसासणं)
चूणिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-श्रुतज्ञान अथवा श्रावक धर्म ।' वृत्तिकार ने इसका अर्थ-आज्ञा, आगम या संयम किया है। अनुयोगद्वार सूत्र में शासन को आगम का पर्यायवाची बताया गया है। १४. मात्सर्य......... (मच्छरे.........)
चूर्णिकार के अनुसार इसका अर्थ है-अभिमान पूर्वक किया जाने वाला रोष । इसकी उत्पत्ति के चार कारण हैं-(१) क्षेत्र (२) वस्तु (३) उपधि (४) शरीर । जो जाति, लाभ, तप, ज्ञान आदि से सम्पन्न है उसके प्रति भी मात्सर्य न रखे । यह अनुभव न करे कि यह इन गुणों से युक्त है, मैं नही हूं अथवा गुणों की समानता में भी मात्सर्य न करे।
___ वृत्तिकार के अनुसार क्षेत्र, वस्तु, उपधि और शरीर के प्रति राग-द्वेष रखना मात्सर्य है। इनके प्रति निष्पिपासित होना अमात्सर्य है। ६५. उंछ (माधुकरी) (उंछ)
चूर्णिकार ने इसके दो प्रकार किए हैं(१) द्रव्य उंछ-नीरस पदार्थ ।
(२) भाव उंछ-अज्ञात चर्या । भिक्षु अपनी जाति, कुल वंश आदि के आधार पर भिक्षा प्राप्ति का प्रयत्न न करे। वह अज्ञात रूप से भिक्षा ले।'
वृत्तिकार ने इसका अर्थ-भिक्षा से प्राप्त वस्तु किया है।'
देखें-दसवेआलियं ८।२३ का टिप्पण । १६. समाधिस्थ (जुत्ते)
इसका अर्थ है-समाधिस्थ । चूणिकार ने इसका अर्थ ज्ञान, दर्शन और चारित्र सहित अथवा तप, संयम में प्रवृत्त णिया है। वृत्ति में भी यही अर्थ है ।' ज्ञान, दर्शन और चारित्र—यह समाधित्रिक है। इससे मनुष्य समाधिस्थ या समाहित होता है। गीता के अनुसार 'युक्त' चित्त की एक विशेष अवस्था का नाम है। जब एकाग्रताप्राप्तचित्त बाह्य चिंतन को छोड़कर केवल आत्मा में ही स्थित होता है, दृष्ट और अदृष्ट सभी कामभोगों के प्रति निस्पृह हो जाता है, तब वह 'युक्त' कहलाता है।" १. चूणि, पृ० ७४ : अनुशास्यते येन तवनुशासनम्, श्रुतज्ञानमित्यर्थः । अथवा अनुशासनस्य श्रावकधर्मस्य । २. वृत्ति, पत्र ७५ : शासनम्-आज्ञामागमं वा ............ तदुक्ते संयमे वा। ३. अणुओगद्दाराई, सूत्र ५१, गाथा १; बृहत्कल्पभाष्य गाथा १७४, पीठिका पृ०५८ :
सुय-सुत्त-नांथ-सिद्धत, सासणे आण-वयण-उवएसे ।
पण्णवण-आगमे य, एगट्ठा पज्जवा सुत्ते ॥ ४. चणि, पृ०७४ : मत्सरो नाम अभिमानपुरस्सरी रोषः। स चतुर्द्धा भवति, तं जधा-खेत्तं पडुच्च, वत्थु पडच्च, उर्वाध पहच्च, ___ सरीरं पडुच्च । एतेसु सम्वेसु उत्पत्तिकारणेसु विनीतमत्सरेण भवितव्वं । तथा जाति-लाम-तपो-विज्ञानादिसम्पन्ने च परे न मत्सर।
कार्यः-यथाऽयमेभिर्गुणैर्युक्तोऽहं नेति, तद्गुणसमाणे वा । ५. वृत्ति, पत्र ७५ : विणीयमच्छरे............सर्वत्रापनीतो मत्सरो येन स तथा सोऽरक्तद्विष्टः क्षेत्रव (वा) स्तूपधिशरीरनिष्पिपासः । ६. चूणि, पृ०७४ : दब्बुंछ उक्खलि-खलगादि, भावुछ अज्ञातचर्या । ७. वृत्ति, पत्र ७४ : उंछंति भक्ष्यम् । ८. चूणि पृ० ७४ : जुत्तो णाम णाणादीहिं तव-संजमेसु वा । ६. वृत्ति, पत्र ७६ : युक्तो ज्ञानादिभिः । १०. गीता ६१८: यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तवा ।।
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