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________________ सूयगडो १ १२१ श्लोक ६५ : ६०. श्लोक ६४-६५ : मनुष्य दो प्रकार की दृष्टि वाले होते हैं । कुछ मनुष्य दोनों जन्मों के प्रति आस्थावान होते है। कुछ मनुष्य इन दो श्लोकों में सूत्रकार ने एक चिरंतन प्रश्न की चर्चा की है। इहलोक के साथ-साथ परलोक को भी स्वीकार करते है-वर्तमान और भावी अपने अस्तित्व को वर्तमान जीवन तक हो सीमित मानते हैं । जिनमें पारलौकिक जीवन की आस्था होती है वे वर्तमान जीवन के प्रति जागरूक होते हैं । वे जीवन को नश्वरता को समझते हैं और वर्तमान जीवन में किए गए असद् आचरणों का परिणाम अगले जन्म में भी भुगतना होता है, इसलिए हिंसा आदि के आचरण में ढीठ नहीं बनते । आगामी जीवन में आस्था न रखने वाले निश्चित भाव से हिंसा आदि के आचरणों में प्रवृत्त हो सकते हैं। इसलिए उनमें ढीठता आ जाती है। उनका स्पष्ट तर्क होता है— हमें वर्तमान से मतलब है, परलोक की कोई चिंता नहीं है । किसने देखा है परलोक ! परलोक साक्षात् दृश्यमान नहीं है। फिर उसे कैसे माना जाए ? यह प्रश्नचिन्ह परलोक में आस्था रखने वालों के सामने भी है । इस प्रश्न का उत्तर सूत्रकार ने ६५ वें श्लोक में दिया है। कोई अंधा आदमी सूर्य के प्रकाश को नहीं देख पाता । इसका अर्थ यह नहीं होता कि प्रकाश नहीं है । इसी प्रकार मोह से अंध मनुष्य आत्मा के पारलौकिक अस्तित्व को नहीं देख पाता, इसका अर्थ यह नहीं होता है कि वह नहीं है । सूत्रकार अपने अनुभव के आधार पर कहते हैं कि जैसे अंधा मनुष्य प्रकाश के अस्तित्व को स्वीकार करता है, वैसे ही अचाक्षुप पदार्थों को साक्षात् देजने वाले देशों और अन्तरानी पुरुषों ने जो कहा है, उस पर तुम भरोसा करो ।' श्लोक ६६ : १. सहिष्णु (सहिए ) चूर्णिकार ने ' सहित ' का अर्थ-ज्ञान आदि से युक्त किया है । वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं-हित सहित तथा ज्ञान आदि से युक्त । ज्ञान आदि से युक्त के लिए केवल 'सहित' शब्द का प्रयोग ठीक नहीं लगता । केवल 'सहित' शब्द का प्रयोग किए गए अर्थों से भिन्न अर्थ की सूचना देता है । सहित शब्द का एक अर्थ है-सहनशील, सहिष्णु ।" यह अर्थ समुचित प्रतीत होता है । देखें - २५१, ५२ के टिप्पण | १. (क) चूणि, पृ० ७३ । (ख) वृत्ति, पत्र ७४ । अध्ययन २ टिप्पण ४०-१२ श्लोक ६७ : २. श्लोक ६७ : धर्म की आराधना के लिए गृहवास और गृहत्याग — दोनों अवस्थाएं मान्य हैं। गृहवास में रहने वाला व्यक्ति भी धर्म का क्रमिक विकास कर सकता है । सबसे पहले धर्म का श्रवण, फिर ज्ञान, विज्ञान और संयमासंयम ( श्रावक के बारह व्रत ) को स्वीकार किया जाता है । यह गृहस्थ के लिए धर्म की आराधना का क्रम है । सामायिक व्रत के द्वारा सर्वत्र समता का अनुशीलन करने वाला गृहस्थ दिव्य उत्कर्ष को उपलब्ध होता है । उत्तराध्ययन के ५। २३, २४ वें श्लोक में यह विषय कुछ विस्तार से चर्चित है । प्रस्तुत सूत्र में 'देवाणं गच्छे सलोगयं'– यह पद है । उत्तराध्ययन में 'गच्छे जक्ख सलोगयं' - यह पद मिलता है । प्राचीन काल में 'यक्ष' शब्द देव के अर्थ में प्रयुक्त होता था । देखें- उत्तराध्ययन ५।२४ का टिप्पण | Jain Education International २. चूर्ण, पृ० ७३ : सहितो नाम ज्ञानादिभिः । २. वृति पत्र ७५ सह हितेन वर्तत इति सहितो ज्ञानादियुक्तो वा । ४. आप्टे संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी सहित - Borne, endured. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003592
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Suyagado Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1984
Total Pages700
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size14 MB
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