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सूयगडो १
१२० अध्ययन २ : टिप्पण ८७-८ अपने आपको भी दंडित करता है, इसलिए हिंसक आत्मचंद कहलाता है, हिंसक का न इहलोक होता है और न परलोक होता हैन वर्तमान का जीवन अच्छा होता है और न भविष्य का जीवन अच्छा होता है। इस दृष्टि से भी उसे आत्मदंड कहा गया है।
८७. विजन में लूटने वाले ( एगंतलूसमा )
पूर्णिकार ने इसका अर्थ एकान्त हिंसक किया है।' वृतिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं—१. एकान्ततः प्राणियों को हिसा करने वाले, २. सद्अनुष्ठान के ध्वंसक
चूर्णिकार और टीकाकार के अर्थ स्पष्ट भावना को प्रस्तुत नहीं करते। इसका अर्थ- 'विजन में लूटने वाले' उपयुक्त लगता है । हिंसा की बात 'आरंभनिस्सिया' में आ चुकी है । अतः यहां हिंसा का अर्थ समीचीन नहीं लगता । 'लूषक' के दो अर्थ हैं --अवयवों का छेदन करने वाला और लूट-खसोट करने वाला ।"
८. नरक में (पावलोगयं)
चूर्णि और वृत्ति में पापलोक का अर्थ नरक किया है ।"
८. आसुरी दिशा में (आसुरियं )
असुर शब्द का संबंध क्रोध और रौद्र कर्म से है । जिसके क्रोध की परंपरा लम्बी होती है, उसकी भावना को आसुरिका भावना कहा जाता है।' देवों के चार निकाय हैं-भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक। इनमें भवनपति और व्यतर- इन दोनों को असुर कहा गया है । असुर भवनपति देवों की एक जाति है, किन्तु सुर और असुर के विभाग में असुर का अर्थ व्यापक हो जाता है । इसी आधार पर अभयदेवसूरि ने असुर का अर्थ भवनपति और व्यंतर दोनों किया है।" भवनपति और व्यंतर देवों से संबंधित दिशा को भी आसुरी या आसुरिका दिशा कहा जाता है। यहां आसुरिका दिशा का तात्पर्य नारकीय दिशा है। क्रोधी और रौद्रकर्मकारी मनुष्य असुर होते हैं और वे अपनी आसुरी वृत्ति के कारण उस दिशा में जाते हैं जहां क्रोध और रौद्र कर्म के परिणाम भुगतने की परिस्थितियां होती हैं। उत्तराध्ययनसूत्र ( ७ / ५-१०) में हिसा करने वाले झूठ बोलने वाले, लूटपाट करने वाले मांस खाने वाले आदि-आदि क्रूर कर्म करने वाले को आसुरी दिशा में जाने वाला बतलाया है।
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चूर्णिकार ने आसुरिका के दो प्रकार किए हैं
१. द्रव्यतः असूर्या - जहां सूर्य न हो- नरक आदि ।
२. भावत: असूर्या - जिन जीवों के चक्षु न हों— एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय आदि जीव ।
वृत्तिकार के अनुसार अज्ञान-तप आदि के कारण उस प्रकार के देवत्व की प्राप्ति होती है तो भी वे बासुरी दिशा की ओर ही जाते हैं।
इसका तात्पर्य है कि वैसे लोग देव बनकर भी दूसरे देवों के कर्मकर और किल्विषिक देव -- अधमदेव होते हैं ।
१. चूर्णि पृष्ठ ७२ : परदण्डप्रवृत्ता आत्मानमपि दण्डयन्ति, अथवा ण तेसि इमो लोगो न परलोगो तेनाऽऽत्मानं दण्डयन्ति । २. णि, पृष्ठ ७२ गंगा एतहिना इत्यर्थः ।
३. वृत्ति, पत्र ७४ : एकान्तेनैव जन्तूनां लूषकाः -- हिंसकाः सद्नुष्ठानस्य वा ध्वंसकाः ।
४. आप्टे संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी: To hurt, to plunder.
५. (क) चूणि, पृ० ७२ : पापानि पापो वा लोकः नरकः ।
(ख) वृत्ति, पत्र ७४ : पापं लोकं पापकर्मकारिणां यो लोको नरकादिः ।
६. उत्तरज्झणाणि ३६ / २६६ ।
७. स्थानांगवृत्ति, पत्र २० : असुरा: भवनपतिव्यन्तराः ।
८. चूर्णि पृष्ठ ७२, ७३ : आसूरिका दव्वे भावे य । आसूरियाणि न तत्थ सूरो विद्यते, अधवा एगिदियाणं सूरो णत्थि जाव तेइंदिया असूरा वा भवंति ।
६. वृत्ति पत्र ७४ तथा बालतपश्चरणादिना यद्यपि तथाविधदेवत्वावाप्तिस्तचाप्यतुराणामियनामुरी तो दिशं पन्ति ।
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